Saturday, December 2, 2017

चमक अन्दर भी बाहर भी
  सेवाराम त्रिपाठी
वे लोग निश्चित रूप से महान होते हैं जो बदल रहे समाज और दुनिया के परिवर्तनों की आहट को अपनी लत्ता लपेटी में या स्वार्थपरता में खर्च करते हैं? ऐसा नहीं है कि बदलाहट होती ही नहीं? होती है तो हम उसे अपनी सुविधानुसार चेन्ज कर देते हैं? भारत अभी भी सत्तानशीनों के इशारे पर नाचता है, महानों की जय-जयकार करता है। उनकी पालकियों पर कन्धा देता है? यह सब कब तक चलेगा? इसका कोई निर्णय अभी तक नहीं हुआ। समाज बहुत तेज़ी से बदल रहा है, दुनिया बदल रही है लेकिन अभी भी हम संभावनाविहीन समाज रचे जा रहे हैं और पुराने जमाने के इरादों का डंका बजा रहे हैं? विकास होना चाहिये लेकिन उसके स्थान पर जब विनाश के उत्सव गीतों को पढ़ा जाता है तो कुछ न कुछ होकर रहता है। एक बीमार समाज, एक टूटन भरी मानसिकता को निरन्तर सिरजा जाता है, जहाँ विविधता अनेकता में एकता के मानकों को तोड़ा जाता है। तो हम कौन से चमकार से जगमगायेंगे माहौल को। हमारी नियति लड़ाई झगड़ा, लूट-खसोट और स्वार्थों का संसार नहीं है। भ्रष्टाचार की सनसनाती दुनिया भी नहीं है? 
गाँव-गाँव, कस्बों-कस्बों और शहरों में भ्रष्ट आचरण का, मारो-काटो-खाओ और हाथ मत आओ का एक भैरव राग प्रचारित किया गया है। गाँव कस्बे ही नहीं पूरा देश इन विकृतियों को झेल रहा है? आधुनिकता की विकृतियाँ, लम्पटता के नये-नये रूप हमारे मान-मूल्यों को लकवाग्रस्त कर रहे हैं? हम सोचते हैं कि क्या हमारा समाज नई वैचारिकता के आगोश में नहीं है? लेकिन उसकी विचार सरणियों से यात्रा करने में क़ाबिज मन सब्दारों को हमेशा असुविधा ही होती है? भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर नहीं बल्कि ऊपर से नीचे की ओर आता है। बड़े-बड़े दिग्गजों से शुरू होती है भ्रष्टाचार और झूठ की लहलहाती दुनिया। तुलसी ने लिखा- ‘केसव कहि न जाय का कहिये/देखत तब रचना विचित्र अति समुझि मनहि मन रहिये।’ पढ़े लिखे दिमाग निरन्तर कांख रहे हैं और हमारा विकास लगभग पगला गया है। जाहिर है वह देश बहुत अच्छा होता है जहाँ मन से बातें की जाती हैं और लोग समझ जाते हैं। अब तो विकास का मामला दिल से भी सुलझाया जा रहा है। इससे बड़े-बड़े विज्ञापन निकलते हैं। और लोगों का कल्याण करते हैं। वास्तविकता से इनका कोई लेना-देना नहीं है? दूसरी जगहों में शायद इसीलिये बातें समझ में आती हैं क्योंकि वे दिल और मन की बजाय दिमाग से, यथार्थ से और लोककल्याणकारी योजनाओं के समनान्तर होते हैं? अब तो प्रश्न उठने लगा है कि दिमाग कोई आर्गन चीज़ है क्या? जिससे बातें की जायें। कभी-कभी आपको नहीं लगता कि मन से और दिल से बातें करके हम हमेशा ही सत्य बोलते हैं क्या? कभी-कभी यह भी लगता है कि शायद दिमाग से जो बातें बोलते हैं वो झूठ होती हैं। इस दौर में मन और दिल के पुन्नेठ ज़्यादा चमक रहे हैं इसलिये दिमाग की बजाय मन और दिल की बातें की जा रहीं हैं। और वे बातें लोगों के मनोविज्ञान की चटनी बना डालती हैं या उनके दिमागों में दही जमा सकती हैं।
युवाओं को नौकरी मिले या न मिले क्या फ़र्क़ पड़ता है? किसान या असली अन्नदाता कर्ज़ से आत्महत्यायें कर रहे हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? बच्चे विभिन्न बीमारियों से मर रहे हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। बच्चे तो वैसे भी मतदाता नहीं होते। उनके वोट की कोई हैसियत ही नहीं। लड़कियाँ कभी बलात्कार में, कभी दहेज में दहन हो रहीं हैं। बीमारियों को जाल फैला हुआ है क्या फर्क़ पड़ता है। अव्यवस्थ का राज चल रहा है उसे क्या मतलब? झांसा देना हमारे यहाँ राष्ट्रीय उत्सव से कम है क्या? कोई कहता है कि व्यापारियों को हर तरह से मुक्त किया जायेगा, उन्हें फंसने नहीं दिया जायेगा। शिक्षा और प्रशासन व्यवस्था बेहतर होगी। आर्थिक स्थितियों में तब्दीली होकर रहेगी कीमतें बढ़ती हैं तो अपनी बला से? राम राज्य आयेगा और घी दूध की नदियाँ बहेंगी? पवित्र नदियों की साफ़-सफ़ाई होगी? इन वायदों में दम है। मन और दिल से निकली हुई बातें हमेशा दमदार होती हैं। लोग मरें चाहें जियें? इससे काबिज लोगों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता? प्रजातंत्र की परिभाषायें बदल रहीं हैं? अब  प्रजातंत्र जनता की बजाय शासन चलाने वालों पर निर्भर करेगा? जैसा सत्ता में काबिज सोंचेंगे कुछ उसी तरह के परिणाम होंगे क्येांकि मन चंगा तो कठौती में गंगा? जनता तो हमेशा बेचारी होती है? वह तो गाय है जितना दुहना हो दुह लो और बाद में बछड़ों को उसके थनों से चिपका दो। वे उन थनों को काफी समय तक चिचोरते रहेंगे? जनता के प्रतिनिध लगातार दुहे जा रहे हैं और जिन युवाओं में दुनिया बदलने की ताक़त है, जो पहाड़ी नदी की तरह होते हैं जिनमें समूची क्षमतायें होती हैं वे केवल थन चचोर रहे हैं? उनकी समूची ऊर्जा का इस्तेमाल किसी भी तरह के प्रलोभनों में चला जाता है और वे टुकुर-टुकुर ताक़ते रहते हैं कि अभी कुछ हो जायेगा लेकिन हुआ अभी तक नहीं। कहावत है आशा से आकाशा थमा है। युवाओं के बारे में कभी कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करता? उनसे अपने उपयोग के लिये हर तरह के काम कराये जाते हैं। सब उन्हें अच्छा और भला कहते हैं और इस तरह उन्हें हमेशा लूटा जाता है? शायद यही सत्ता में बैठे लोगों के लिये अमन का राग है। हमारी तरुणाई ठीक-ठिकाने से लालच में फंसी है। हमारा देश प्रलोभनों को झेल रहा है। बाबा लोगों का अपना धंध जारी है। कोई व्यापार कर रहा है, कोई बलात्कार कर रहा है, कोई वैभव का साम्राज्य खड़ा कर रहा है।
यहाँ ऐसा है कि जो सच-सच कहेगा, निश्छल रूप  से कहेगा, लोक कल्याण की बातें करेगा, जो हमेशा भला सोचेगा उसकी मौत निश्चित है। उसे या तो कहीं फंसा दिया जायेगा या मौत के घाट उतार दिया जायेगा। ऐसा बार-बार लोग कहते हुये घूम रहे हैं। इन्द्रधनुष दिखाये जा रहे हैं। खूबसूरत दिनों का व्यापार करिये क्या फ़र्क पड़ता है? हम सड़कें ठीक नहीं कर सकते। जहाँ गड्ढें हैं वहाँ हाई जम्प-लांग जम्प लगा रहे हैं। सड़कों के चीथड़े उड़ गये हैं। वे दिन ब दिन पुरातत्व की धरोहरें हो रहीं हैं क्या हम उन्हें ठीक कर पाये। समूचा खेल आंकड़ा जुटाने का है भले दिनों को सामने ला देने है। आपको झांसो के हिसाब किताब समझा दिये जायेंगे। हमारे यहाँ कुछ ताक़तें इस पर जीवित हैं कि देश का भला हो क्योंकि उन्होंने देश कल्याण करने का बेहद आसान रास्ता ले रखा है। देश उनकी नज़र में ठेके से है। जो कुछ पूर्व में हुआ था या किया गया था माना कि ग़लतियाँ वहाँ भी थीं लेकिन उसका मूड इसलिये नहीं है कि वह पुरानी जमाने की चीज़ें हैं वे समय के अनुरूप नहीं हैं जो समय के अनुरूप कार्य करेगा उससे जनता का भी भला होगा, प्रशासन का भी होगा और काबिज सत्ताओं का भी।

Sunday, May 21, 2017

सोशल मीडिया में फेसबुक और हमारी सरकार
                                                                                                                  सेवाराम त्रिपाठी
             पिछले दो दिनों से कुछ तकनीकी कारणों से मैं फेसबुक से अलग-थलग था। न तो मेरा इन्टरनेट काम कर रहा था, न फोन, न मोबाइल। ठीक तो अभी नहीं हुआ है। तकनीकी जानकार व्यवस्था सुधारने में लगे हैं। हम लोग तो अपनी आत्मगत ग़लतियों को स्वीकार कर लेते हैं। ऐसा न करेंगे तो पकड़े जायेंगे। बिना वजह की हाकेंगे तो कहीं न कहीं धर लिये जायेंगे क्योंकि अपना मामला शर्माे हया का है। दीन दुनिया का है। हमारे देश में कुछ ऐसे नामवर तत्व हैं या ऐसे तत्वज्ञानी हैं जिन्होंने शर्म, हया और लज्जा को चीनी की तरह घोलकर पी लिया है। ज़ाहिर है कि वे कहते हैं कि हम कभी ग़लती नहीं करते। शायद इसीलिये न तो उन्हें शर्म है, और न कहीं लज्जा। वे हयाप्रूफ हैं। वे किसी भी रूप में अपनी हेटी नहीं चाहते? बड़ी-बड़ी बातें हांकना तो उनका धन्धा है। बेशर्मी की वजह से आजकल महापुरुष बन जाने का प्रचलन है। लगता है इसी तरह महापुरुष बना जाता है। यह इसीलिये किसी भी क़ीमत पर लाख ग़लतियाँ करने पर बेशर्मी नहीं छोड़ना चाहते। फेसबुक का इस्तेमाल एक भयावह रोग की तरह है या एक विराट फैशन की तरह है। फेसबुक ऐसा है कि इससे आप जैसा व्यवहार करना चाहें कर सकते हैं या एक तरह से ‘ऐज यू लाइक इट’ यानी जैसा आप चाहें व्यवहार कर सकते हैं। सही-सही कोई कुछ नहीं जानता लेकिन है अवश्य ही ऐसा ही कुछ। इसका उपयोग करने वाले तो कुछ लगभग अजीब सी दीवानगी से भरे हुये हैं। उनके उत्साह का क्या कहना? अब तो फेसबुक बहुत सारी चीज़ें तय कर रहा है। यात्रा, उत्सव, अपराध, हांकने की कलायें, बड़ी-बड़ी बातें बघारने के जलसे, उत्सवों के नंगे नाच, बड़े-बड़े कार्यक्रम इसी अदा से सम्पन्न होते हैं। कुछ लोग इससे तरह-तरह की कटें निकालने की ‘फिराक’ में होते हैं। जाहिर है कि यह मनमाना सोशल मीडिया होते हुये भी आपसे भरपूर जिम्मेदारी की मांग करता है। दूसरी गम्भीरता को समझने की ज़रूरत है। इसका किसी भी तरह मनमाना प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये।
            परसों मेरे एक परिचित मिले कहने लगे पहले हमें कोई पूछता तक नहीं था जब से फेसबुक में आये हैं दनादन सारी चीज़ें पोस्ट कर रहे हैं। हम अपने मन के राजा हैं। लिखना, पढ़ना व्यवहार करना अपने हाथ में है। अब तो बड़े-बड़े तीस मार खाँ हमें जानने पहचानने लगे हैं। मुझे उनके चेहरे में प्रकाश फैलता हुआ नज़र आया। जैसे बड़े-बड़े व्यक्तित्वों और दैवीय लोगों के पीछे एक चक्र सा बन जाता है। वे बोले बड़े-बड़े हमारी लाइकिंग पर ज़िन्दा हैं। जो मन में आता है सो लिखते हैं। क्या किसी के गुलाम थोड़े हैं? वे बोले हम फेसबुक में चाहे जैसा व्यवहार करें। वे सब झेलते हैं। इसी से हमारी अपनी औकात बढ़ी है। दरअसल इस दौर में जो फेसबुक से नहीं जुड़ा। या वहाँ यदि उसका खाता नहीं खुल पाया। तो वह दुखी भी होता है निराश भी। इसीलिये लोग औने पौने  कम से कम खाता तो खुलवा ही लेते हैं। भले ही पोस्ट किसी की सहायता से एक-दो महीने बाद करें। इसे यह भी कहा जा सकता है कि वे चुपचाप अपने उसी खाते में फड़फड़ाते रहते हैं थोड़े से जल में पड़ी हुई मछली की तरह। और कभी-कभी गर्राते रहते हैं। बड़े गर्व से कहते हैं कि फेसबुक में अपना भी खाता है। यह तो उनकी फ़ितरत है। एक पक्ष यह भी है कि लोग चाहे मर जायें लेकिन सेल्फी लेना नहीं भूलते? उसे फेसबुक में पोस्ट करने से नहीं चूकते। नदी के बीच नाव डगमगाती है और वे सेल्फी खींच रहे होते हैं। किसी पुराने भवन के खण्डहरों में चढ़े हैं और सेल्फी ले रहे हैं। और कभी-कभार इसी प्रक्रिया में उनका रामनाम सत्य हो जाता है। अज़ीब-अजीब शौक हैं। कुछ लोग फेसबुक में हमेशा लाइव रहना चाहते हैं। लगता है यह उनके लिये ज़िन्दगी और मौत का मामला है। कुछ तो ऐसे-ऐसे फेसबुकिया होते हैं कि उनका मन फेसबुक में ही रमता है। पता नहीं किस-किस तरह की फोटो डालते हैं उत्सवों में, जंगलों में और न जाने कहाँ-कहाँ फोटो खींचते हैं और फेसबुक में भर देते हैं। अब उनसे कौन कहे कि इतनी सारी तस्वीरें देखने की किसकी औकात है। और भी तो लोग हैं मात्र आप ही देखंेगे तो टन्न गणेश हो जायेंगे। इसी तरह हमारी सरकारें हर उत्सव को, हर छोटे मोटे कार्यक्रमों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें, बड़े-बड़े विज्ञापन हर तरह के मीडिया में बड़ी शान के साथ और बड़ी अदा के साथ प्रकाशित करवा देते हैं। ताकि सनद रहे और वक़्त पर काम आये।
             देश में सूखा पड़ा है, देश में बाढ़ है, किसान आत्महत्यायें कर रहें हैं। हमारे सीमा में तैनात नवजवानों के मूड़ काटे जा रहे हैं। जरा सा पानी बरसता है पुल नदी नालों में लहालोट हो जाते हैं। यानी ध्वस्त हो जाते हैं। सड़कों के चीथड़े उड़ जाते हैं। जनता जनार्दन आँखें मूंदकर किसी तरह जीवित रहती है। सरकार कहती है अपराधियों को बक्शा नहीं जायेगा। लेकिन बार-बार यही होता है और धड़ल्ले से होता है। अचानक मुझे हरिशंकर परसाई याद आ गये उन्होंने लिखा है ‘भुखमरी और भ्रष्टाचार हमारी राष्ट्रीय एकता के सबसे बड़े ताक़तवर तत्व बन गये हैं।’  जीना यहाँ, मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ। मुझे लगता है कि अब फेसबुक और सेल्फी हमारे अमर होने का प्रमाण पत्र बनकर रहेगा? सरकार तो धमकियाँ देने में ज़िन्दा है। लगता है सिर्फ़ धमकियों से उनका काम चल जाता है। और ऐसा लगता है कि अब इसका शायद कोई विकल्प नहीं है। हमारा देश इसलिये भी महान है कि यहाँ ग़रीबी, भुखमरी, अत्याचार और भ्रष्टाचार का कोई विकल्प नहीं है। बड़ों-बड़ों के मुँह में दही जम जाता है। कोई भी सरकार अब भ्रष्टाचार और वादाख़िलाफ़ी के बिना जीवित नहीं रह सकती। अब तो उसमें कुछ नये तत्व पैदा हो गये हैं जैसे हांकना, शेखी बघारना और सीना फुलाना। अब सरकारें सीना फुलाने से तय होती हैं। जिसे अपनी सरकार चलाना है तो उसे हांकना ही पड़ेगा। बिना हांके कोई सरकार चल नहीं सकती। यदि आपने अपनी हांक बन्द की तो समझिये आपकी सरकार गई। चाहे अयोध्या मुद्दा हो या भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या भुखमरी का मुद्दा हो सरकार के जीवन्त बने रहने का खसरा खतौनी है। सरकारें भी क्या करें कैसे जीवित रहें? लगता है उन्हें आपके सांस लेने तक में टैक्स लगाना पड़ेगा। पिछले दिनों उन्होंने रेलगाड़ियों के लोअर बर्थ (नीचे की सीटों पर) अतिरिक्त टैक्स लगाने की मंशा बना ली? प्रश्न है कि बीमार कहाँ जायेंगे? बड़े बूढ़े कहाँ जायेंगे? और अगला आयोजन यह होगा कि सीनियर सिटीजन (वरिष्ठ नागरिक) वाला कोटा भी खत्म कर दिया जायेगा। ऐसा इसलिये होगा कि इससे सरकारी आय में बढ़ोत्तरी हो और उनका काम धड़ल्ले से चल पड़े। सरकार के सामने कुछ बाधा  नहीं होनी चाहिये। वे जमाने लद गये जब गठबन्धनों से सरकारें चलती थीं। अब सरकार कोई धमकी नहीं सुनती। उसे तो एक छत्र साम्राज्य चाहिये। पूरे देश में उसका कब्जा होना चाहिये।
              फेसबुक इस दौर में शासन की तरह व्यवहार कर रहा है। अर्थात मीडिया और लोगों पर निरन्तर छाये रहना। जहाँ जाओ वहाँ फोटो खींचो और फेसबुक की वाल पर चिपका दो। लोगों को देख-देख कर अघा जाना चाहिये। और आपके करिश्मों को मान लेना चाहिये। सरकार का काम करिश्मों और मंसूबों से चलता है। उसी तरह फेसबुक भी करिश्मों से जलवा खींचता है। फेसबुक के बारे में आप चाहे जिस प्रकार का मत रखिये। उसके विधेय पर जाइये या निषेध पर, लेकिन उसे आप छोड़ नहीं सकते? उसके बगैर आप जी नहीं सकते? उसी तरह आप चाहे शासन के विधेय में हों या निषेध में। असहमतियाँ काँख़ती रहती हैं। उन्हें कोई नहीं पूछता। उससे अलग रहकर आप जीवनी शक्ति नहीं पा सकते। उसी तरह शासन जिस तरह शक्तिशाली है उसी तरह फेसबुक भी शक्तिशाली है। न शासन कम, न फेसबुक कम। दोनों एक दूसरे के समानान्तर हैं। क्योंकि आप उनके बगैर जीवित नहीं रह सकते? दोनांे में गर्दा मुर्दी चल रही है। वे एक दूसरे को पटक रहे हैं। वे हमारी भलाई बुराई करते रहते हैं और ठाठ के साथ जीते हैं। जैसे शासन अनेक चीज़ों के सन्दर्भ में कड़े से कड़े शब्दों में निन्दा करता है भले ही करता धरता कुछ न हो लेकिन अपने को हमेशा संदर्भवान बनाये रखता है। उसी तरह फेसबुक भी निन्दा करने में माहिर है और प्रशंसा करने में उस्ताद। वह ढपोर शंख की तरह बतियाता और शेखी बघारता है। लेकिन करे चाहे कुछ न। फेसबुक की माया शासन की तरह होती है। जैसे शासन मायावी होता है। तरह-तरह की फेंकू कार्यवाही करता है उसी तरह फेसबुक भी अपना हमेशा मायाजाल फैलाता और कई तरह की चीज़ें फेंकता रहता है। उसके द्वारा फेंकी हुई चीज़े कभी काम की होती हैं कभी बिना काम की। इन दोनों के सन्दर्भ में श्री कान्त वर्मा की कविता ‘हवन’ को पढ़िये। “चाहता तो बच सकता था/मगर कैसे बच सकता था/जो बचेगा कैसे रचेगा। पहले मैं झुलसा/फिर धधका/फिर छिटकने लगा/कराह सकता था/कैसे कराह सकता था/जो कराहेगा/कैसे निवाहेगा/न यह शहादत थी/न यह उत्सर्ग था/न यह आत्म पीड़न था/न यह सजा थी/तब क्या था यह/किसी के मत्थे मर सकता था/मगर कैसे मर सकता था/जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।”
            देश की स्थितियों के बरक्श न जाने कौन-कौन लोग याद आते हैं। खुशफहमियों का मायाजाल फैला है। जनता वहीं की वहीं है। जनतंत्र में जन अभी भी समस्याओं के अंधेरे में सांस ले रहा है। अंधेरा है सभी जगह। पढ़ाई का अंधेरा, सड़कों का अंधेरा, हमारे अरमानों का अंधेरा। तिल-तिल स्वाहा होती हमारी इच्छाओं का अंधेरा। साधारण आदमी जय-जयकारा लगाने के लिये, भूखे पेट सोने के लिये, वोट देने के लिये और प्रतिदिन उनका शान के साथ गुणगान करने के लिये और सरकार का बाजा बजाने के लिये है। इसी तरह फेसबुक चलेगा, इसी तरह सरकारें। हमें वादों से सरकारें भरमायेंगी और निरन्तर बमकती रहेंगी? धजी का सांप दिखाती रहेंगी? रघुवीर सहाय की यह कविता पढ़िये।
“राष्ट्रगीत में भला कौन वह/भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका/गुन हरचन्ना गाता है।
मखमल टमटम, बल्लम, तुरही/पगड़ी, तंत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर,, ढोल बजाकर/जय-जय कौन कराता है।
पूरब पश्चिम से आते हैं/नंगे ऊँचे नर कंकाल
सिंहासन पर बैठा उनके/तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जनगणमन/अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका/बाजा रोज़ बजाता है।
         बहुत कुछ घट रहा है देश में आम आदमी अधमरा है। केदारनाथ अग्रवाल की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिये सच तो यह है कि कोई भी तरीके आम आदमी को भरमा नहीं सकते। 
“जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है।
जिसने सोने को खोदा, मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा, नहीं मरेगा।”


Friday, January 13, 2017

 राष्ट्रीय काव्यधारा और बालकृष्ण शर्मा नवीन
डॉ. सेवाराम त्रिपाठी


भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने हमारी चेतना को बहुत गहराई तक झकझोरा, मथा और आन्दोलित किया था। अँग्रेज़ों की पराधीनता से हम आजिज आ गये थे। गुलामी की प्रवृत्ति हमारे मन के भीतर पाँव तोडक़र बैठ गई थी। 1857 के पहले स्वाधीनता आन्दोलन ने हमारे अन्दर की काहिली, डर, हताशा, निराशा और पराधीन चेतना को समूचे साहित्य में नये सिरे से व्याख्यायित, विश्लेषित करने का अद्भुत प्रयास किया था और उससे चिन्तन के नये-नये क्षितिज उद्घाटित होने शुरू हुये थे। इस कालखण्ड के रचनाकारों ने न केवल भावबोध के स्तर पर बढ़ रहे साम्राज्यवादी खतरे का प्रतिरोध अपनी रचनाशीलता के माध्यम से किया बल्कि सामाजिक सांस्कृतिक एवं राजनैतिक मोर्चों पर भी यह कार्यवाही प्रारम्भ हुई। भारतेन्दु युग की रचना शीलता में और पत्रकारिता में राष्ट्रीय नव जागरण और चेतना के तीव्र स्वर मुखर हुये थे। भारतेन्दु युग पर विचार करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा की मान्यता है- अगर हम भारतेन्दु युग के समूचे साहित्य पर नजर डालें तो देखेंगे कि उसका टिकाऊ हिस्सा वह नहीं है जो सम-सामायिकता से दूर है जो मध्यकालीन विषय-वस्तु और रूपों को ही साहित्य की पराकाष्ठा मानता है बल्कि उसका सबसे टिकाऊ ओर सजीव हिस्सा वह है जो पुराने रूपों में समसामयिकता की नई विषय-वस्तु भर रहा था और नई साम्राज्य विरोधी चेतना के अनुसार साहित्य के नये रूप भी गढ़ रहा था।
राष्ट्रीय काव्यधारा के प्राय: सभी कवियों का सम्बन्ध राष्ट्रीय आन्दोलन से रहा है। ये सभी कवि अपनी रचनाओं से जनता को उद्बोधित करते थे। भाषण मंचों से कविता सुनाकर जन-समूह को आन्दोलन के लिए सक्रिय होने की प्रेरणा देते थे। उनकी कवितायें एक तरह का राष्ट्रीय आह्वान भी हैं, सोये हुये लोगों को जागृत करने का व्यवस्थित काम भी करती रही हैं। हमें प्रतिरोध के रास्ते की ओर मोड़ती भी रही हैं। 1857 के बाद का समय हमारे सपनों के पंख लगाने का समय है। पुनर्जागरण का एक खास समय है।
आधुनिक काल के राष्ट्रीय नव जागरण की काव्य परम्परा में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, सोहन लाल द्विवेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर’, शिवमंगल सिंह सुमनजैसे कवि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वैसे हल्दी घाटी के कवि श्याम नारायण पाण्डेय और शहीदों पर प्रबन्ध काव्य लिखने वाले श्रीकृष्ण सरलको भला कौन भूल सकता है। यह समय जागृत होने, उठने और ललकारने का भी समय है।
राष्ट्रीय काव्य धारा के कवियों का प्रमुख लक्ष्य अंग्रेज़ों को भारत से बाहर भगाना और भारत को आ$जाद कराना था, साथ ही धार्मिक विद्वेष और पाखण्ड को समाप्त करना, साम्प्रदायिक भावना को कुचलना तथा गरीबी-अमीरी की जो लम्बी-चौड़ी खाई है, उसे पाटना भी रहा है। भारत का चतुर्दिक विकास भी राष्ट्रीय काव्यधारा के कवियों का सपना था। ये सभी कवि बाह्य यथार्थ के स्वरूप का चित्रांकन विश्वसनीयता के साथ करते हैं।
26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गई थी उसके सन्दर्भ में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा- ‘‘हम भारतीय प्रजाजन भी अन्य राष्ट्रों की भाँति अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं कि हम स्वतंत्र होकर रहें, अपने परिश्रम का फल हम स्वयं भोगें और हमें जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक सुविधायें प्राप्त हों जिससे हमें भी विकास का पूरा मौका मिले। हम यह भी जानते हैं कि यदि कोई सरकार अधिकार छीन लेती है और प्रजा को सताती है तो प्रजा को उस सरकार के बदल लेने या मिटा देने का भी अधिकार है। अंग्रेज़ी सरकार ने भारतीयों की स्वतंत्रता का ही अपहरण नहीं किया है बल्कि उसका आधार भी गरीबों के रक्त शोषण पर है और उसने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भारतवर्ष का नाश कर दिया है। अत: हमारा विश्वास है कि भारतवर्ष को अंग्रेज़ों से सम्बन्ध विच्छेद करके पूर्ण स्वराज्य या स्वाधीनता प्राप्त कर लेनी चाहिए।’’ (कांग्रेस का इतिहास पृ.-314-15)
नवीन जी मूलत: रोमानी स्वभाव के कवि रहे हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में निरन्तर काम करते हुये उन पर मज़दूरों के आन्दोलनों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। उनके कृतित्त्व में प्रेम, राष्ट्रभक्ति और श्रमजीवी जनता से जुड़ा हुआ उद्दाम आवेग दृष्टिगोचर होता है। नवीन जी में विद्रोह भावना की प्रबलता है और अन्याय, असंगति और असमानता के प्रति तीब्र विरोध भी रहा है। भवानी प्रसाद मिश्र के शब्दों में- ‘‘नवीन जी केवल अंग्रेज़ी राज्य की कुत्सित नीतियों पर ही नहीं, भारत की मूल परम्पराओं  और उसकी वर्गगत आर्थिक व्यवस्था पर भी प्रहार करने से नहीं चूकते थे। विफलता के मूल में वे सामाजिक वैषम्य, पारस्परिक बैमनस्य एवं अराष्ट्रवादी भावनाओं को देखते हैं।’’
नवीन जी उस दौर के नेताओं के समझौतावादी चरित्र से बहुत नाराज़ थे। गाँधी जी की आलोचना इसी का फल है।
नवीन जी में राष्ट्रीय संस्कार कूट-कूटकर भरे थे। नवीन जी की खासियत यह है कि वे जेल के भीतर और बाहर साहित्य सर्जना करते रहे। स्वतंत्रता के पश्चात्ï उनकी रचनाएँ संकलन के रूप में प्रकाशित हुईं। उनका समूचा जीवन हमेशा एक योद्धा की तरह रहा है। वे जीवन भर बाह्यï और आन्तरिक प्रवृत्तियों से लड़ते-जूझते और टकराते रहे हैं तथा कभी किसी से पराजित नहीं हुये। उनमें पराजय बोध लगभग नहीं था। राजनीतिक और साहित्यिक जीवन में वे समझौतावादी नहीं बन सके। मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये जूझ जाना उनका स्वभाव था पर वे उच्छृंखल नहीं थे। नवीन जी की रचनाओं में उनके युग का समूचा द्वन्द्व, संघर्ष और विद्रोह भावना साकार दिखती है। उनका काव्य मनुष्यता की विजय का काव्य है। इन्सानियत की भावनाओं से उनकी कवितायें ओत-प्रोत हैं। नवीन जी के मन में राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय घटनाक्रमों का और निजी जीवन के संघर्षों का जबर्दस्त प्रभाव पड़ता रहा है। जिसमें 1917 की रूसी क्रान्ति भी शामिल है और गणेश शंकर विद्यार्थी का विराट् व्यक्तित्व भी उन्हें प्रेरणा देता रहा है।
नवीन जी की काव्य भाषा अधिकांशत: आम बोलचाल की भाषा से शक्ति ग्रहण करती है हालांकि उनमें छायावादी काव्यशिल्प का असर जरूर है। उनके भीतर विद्रोह की भावना की प्रधानता हमेशा रही है। जिसे उन्होंने अपने युग के अन्तर्विरोधों से जाना पहचाना था। नवीन जी ने विस्तार से लिखा है- कुंकम, रश्मिरेखा, अपलक, क्वासि, विनोबा स्तवन, उर्मिला, प्राणापर्ण, हम बिषपायी जन्म के और प्रलयंकर आदि रचनाएँ इस की साक्ष्य हैं। शिवदान सिंह चौहान के शब्दों- कुंकुममें संग्रहीत राष्ट्रीय आन्दोलन गाँधीवाद और प्रगतिवाद से प्रभावित गीतों में उनका व्यक्तिवाद दिनकर की तरह प्रगति के इतिहास की चेतना का विश्वास भरा गर्वस्फीत स्वर लेकर प्रकट हुआ।’’ (बालकृष्ण शर्मा नवीन’: व्यक्ति एवं काव्य, पृ.-50.)
नवीन जी की काव्य यात्रा में स्मृति, कल्पना और यथार्थबोध सभी का समाहार हुआ है। उनकी राष्ट्रीय और प्रेम मूलक दोनों प्रकार की रचनाएँ सशक्त हैं। हम बिषपायी जनम केमें यदि राष्ट्रीय सांस्कृतिक गौरव के प्रति कवि को आस्था है तो यौवन मदिरा या पावस पीड़ा में प्रेम की आकर्षक और ईमानदार अभिव्यक्ति हुई है। राष्ट्रीय काव्यधारा में नवीन एक भावुक कवि हैं। राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में उनकी चिन्तनशीलता भी परिलक्षित होती है। नवीन जी की अनुभूति में कोई गुड्ड मड्ड पन नहीं है। सभी जगह उनकी सहजता विद्यमान है। वे भाषा और विषय दोनों में पवित्रता के समर्थक हैं। वे स्वभाव से स्वच्छन्द और अराजक थे, इसीलिए रूढिय़ों को तोडक़र उन्होंने अलग पथ बनाया।
नवीन जी की कविता में उलझाव प्राय: नहीं है। उसमें तीव्रतर यथार्थबोध है। वे यथार्थ को सीधे-सीधे देखते हैं, और बिना किसी लाग-लपेट के जैसा अनुभव करते हैं वैसा ही अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। दरअसल यथार्थ के दो रूप होते हैं- बाह्यï और आन्तरिक यथार्थ। नवीन जी आन्तरिक यथार्थ को या यथार्थ के भीतर मौजूद यथार्थ और उसकी आन्तरिक हलचलों को ठीक-ठीक स्थान नहीं दे पाते। उनकी कविता जो जैसा है उसे उसी तरह प्रस्तुत करने में अत्यन्त समर्थ है। उनके यहाँ बनावटीपन के लिये कोई स्थान नहीं है।
नवीन जी ने अपनी तमाम रचनाशीलता में गरीबों के प्रति अपनी उत्कृष्ट भावाभिव्यक्ति को मुखर किया है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं- जूठे पत्तेकविता में भिखारी का करुण चित्र प्रस्तुत हुआ है। कवि मनुष्य के भिक्षुक रूप पर क्षुब्ध है। अत: आक्रोश से भरा कवि भिक्षुक में आत्मविश्वास जगाकर संसार की चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा देता है।
‘‘लपक चाटते जूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को
उस दिन सोचा क्यों न लगा दें, आग आज इस दुनिया भर को।
यह भी सोचा, क्यों न टेंटुआ घोंटा जाय स्वयं जगत्पति का
जिसने अपने ही स्वरूप को रूप दिया इस घृणित विकृति का।
...                      ...
ओ भिखमंगे अरे पराजित, ओ मजलूम अरे चिर-दोहित।
तू अखण्ड भण्डार शक्ति का जाग अरे निद्रा-सम्मोहित।
प्राणों को तड़पाने वाली, हुंकारों से जल-थल भर दे।
अनाचार के अम्बारों में अपना ज्वलित पलीता धर दे।’’
नवीन जी में विद्रोह भावना इतनी प्रखर थी, जिसके आवेश में अपने कलम कुठार से उन्होंने पूज्य महात्मा गाँधी को तो क्या परम सत्ता कहे जाने वाले ईश्वर को भी नहीं बख्शा। नवीन जी की एक अत्यन्त प्रसिद्ध कविता है- विप्लवगायन’, जिसमें उन्होंने विप्लव के स्वरूप को बड़ी ओजस्वी और धारदार भाषा में अभिव्यक्त किया है।
‘‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये,
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ, त्राहि-त्राहि रव नभ में छाये,
नाश और सत्यानाशों का धुँआधार जग में छा जायें,
बरसे आग, जलद जल जायें, भस्मसात्भूधर हो जायें,
पाप-पुण्य सदसद्ïभावों की धूलि उड़ उठे दायें बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाये, तारे टूक-टूक हो जायें,’’
जाहिर है कि सब कुछ जल जाने का नष्ट हो जाने का यह प्रबल प्रतिरोध या विद्रोह अन्ततोगत्वा एक तरह की दिशाहीनता में समाप्त होता है। यह एक तरह का आवेग है। और इसका कविता की दुनिया में जब-तब व्यवहार हुआ है। क्रान्तिकारिता में ऐसा आवेग कभी-कभी होता है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। 
नवीन जी फक्कड़ और अलमस्त स्वभाव के कवि थे। वे जीवन पर्यन्त फकीराना अन्दाज़ से रहे। उन्होंने कोई माया नहीं जोड़ी और न भवन बनवाये, जिसका चित्र हमें नवीन जी की प्रसिद्ध रचना हम अनिकेतनमें दिखाई पड़ता है।
हम अनिकेतन, हम अनिकेतन,
हम तो रमते राम हमारा क्या घर?
...              ...              ...

देखे महल, झोंपड़े देखे, देखे हास-विलास मजे के।
संग्रह के विग्रह सब देखे, जँचे नहीं कुछ अपने लेखे।

ठहरे अगर किसी के दर पर, कुछ शरमाकर, कुछ सकुचाकर।
यों दरबान कह उठा, ‘बाबा’, आगे जा देखो कोई घर।
हम दाता बनकर विचरे, पर हमें भिक्षु समझे जग के जन।
हम अनिकेतन, हम अनिकेतन।
राष्ट्रीय काव्यधारा का विश्लेषण करते हुए राजीव सक्सेना ने लिखा है- ‘‘इस काव्यधारा में उछा म संघर्ष का ओजपूर्ण आह्वन तो नहीं था किन्तु मजदूर किसान जनता के प्रति गहरी सहानुभूति, अतिनैतिकता की उच्छृंखलतापूर्वक ठुकराने और अपनी फकीरी में मस्तमौला बने रहने तथा जनसाधारण से तादात्म्य स्थापित किये रहने का संकल्प प्रमुख था। इस वृत्ति के दर्शन नवीन में पहले से ही हो रहे थे और इसमें संदेह नहीं कि फक्कड़पन के साथ और गरीब जनता से तादात्म्य के साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पडऩे वाले नौजवानों को ये कवितायें बड़ी पसन्द थीं।’’(हिन्दी की प्रगतिशील कविताएँ पृ.-16.)
क्रान्ति का आह्वान करने वाले, मानवतावादी मूल्यों के समर्थक तथा राष्ट्रीय विचारधारा में डूबे हुए कवि बालकृष्ण शर्मा नवीनजी के पास यदि बहुत बड़ा लक्ष्य स्पष्ट होता और वे उन कारणों की खोज कर पाते जिनकी वजह से यह असमानता है, उत्पीडऩ है, मारा-मारी है तो सम्भवत: उनकी कविता हिन्दी कविता की लगभग सिरमौर कविता बनती। बहरहाल नवीन जी की कविताओं ने हमारी राष्ट्रीय  समस्याओं को नये रूप में रखा, नवयुवकों में उत्साह और जोश की भावना को केन्द्रीभूत किया। हिन्दी कविता, भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय समस्याओं के सिलसिले में नवीन जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।


Thursday, January 12, 2017

हिन्दी ग़ज़ल के नये पड़ाव

सेवाराम त्रिपाठी

यूँ तो ग़ज़ल का शब्दिक अर्थ नारियों के प्रेम की बातें करना है। ग़ज़ल फारसी-उर्दू में मुक्तक काव्य का एक भेद हैं जिसका प्रमुख विषय प्रेम होता है। ग़ज़ल की बनावट और बुनावट के बारे में लिखा गया है- “अक्सर ग़ज़ल के पहले शेर के दोनों मिसरे एक ही “काफिया“ और रदीफ में होते हैं। ऐसे शेर को ‘मतला’ कहते हैं। अंत में जिस शेर में शायर का उपनाम या तखल्लुस हो, वह ‘मकता’ कहलाता है। 
ग़ज़ल उर्दू काव्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप है। इसी लोकप्रियता के कारण ग़ज़ल लिखने वालों ने ‘मुशायरों’ का आयोजन किया, जिसमें प्रत्येक कवि अपनी-अपनी ग़ज़लें सुनाता था। इस प्रकार एक परम्परा चल पड़ी, जिसका चलन आज भी बहुत है। दरअसल ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय विधा है। इसका पहला शेर स्थाई और शेष सभी शेर अन्तरे के रूप में जाने जाते हैं। जिन रागों में ठुमरी और टप्पे गाये जाते हैं, उन्हीं रागों का प्रयोग ग़ज़लों के गाये जाने में भी होता है। 
राग की शास्त्रीयता का ग़ज़लों की गायकी में जोर नहीं हैं। आजकल ग़ज़ल गायकी अपनी बुलंदियों पर हैं। इसी से इसकी लोकप्रियता का पता चलता है। ग़ज़लों की परम्परा में वहीं नुसरती, सिंराज, बली, शाह हातिम, शाह मुबारक, आवख, मुहम्मद शाकिर नाजी से लेकर मीर तकी मीर, इंशा, मुसहफी, नामिख, मोमिन, जौक, गालिब, आतिश, हाली, दाग, अमीर मीनाई, जलाल, फानी, हसरत, असर लखनवी, जिगर और फिराक गोरखपुरी तक अनेक रचनाकार हैं। मीर ने लिखा है - 
यपत्ता, पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने हैं
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने हैं।य 
ग़ज़ल की सुदीर्घ परम्परा में इसके क्रमिक विकास की समूची दास्तान है।
मेरी समझ में हिन्दी ग़ज़ल या फारसी या उर्दू ग़ज़ल कहना बेमानी है, क्योंकि समूची ग़ज़लों में हमारा समूचा जीवन बोलता है। ग़ज़ल, ग़ज़ल हैं, उसमें भेद नहीं किया जाना चाहिये और न अलग-अलग खाने बनाने की ज़रूरत है। बहरहाल हिन्दी में जो ग़ज़ल लिखी जा रही हैं, उन्हें उर्दू कवि स्वीकार नहीं कर पा रहे। उसमें मीटर और नाप जोख की दीवारें हैं। इसलिये देवनागरी में लिखी जा रही ग़ज़लों को हिन्दी में ग़ज़ल कहने या मानने की एक लचर परम्परा विकसित हो रही है, लेकिन यह मसला बाहरी है और एक तरह बेमानी भी है। किसी भी भाषा की लोकप्रिय विधा के सामने कभी कोई अवरोध आड़े नहीं आता। ग़ज़ल की हम जब भी बात करते हैं, उर्दू का नाम ज़रूर आता है। जाहिर है कि अब ग़ज़ल आशिक-माशूक के तकरार-इकरार और हुश्न-ओ-इश्क का मामला नहीं हैं। 
उर्दू में भी ये बंधन टूटे हैं, हिन्दी में तो कहना ही क्या? फिराक गोरखपुरी के शब्दों में - “दरअसल ग़ज़ल की व्यक्तिवादी चेतना का आधार इतना कमजोर नहीं था जितना ऊपर से देखने पर मालूम होता था। प्रेम की भावना उतनी ही स्वाभाविक है जितनी भूख और प्यास। कोई व्यक्ति देशप्रेमी हो या देशद्रोही, हिन्दू हो या मुसलमान, पुरातनपंथी हो या प्रगतिशील, हर एक को भूख, प्यास और नींद एक सी लगती है। उर्दू काव्य के पीछे सूफीवाद की वह शक्तिशाली परम्परा थी जिसे न धार्मिक कर्मकाण्ड का पशुबल दबा सका, न समय के प्रवाह ने जिसकी धार को कुन्द किया।“ (उर्दू भाषा और साहित्य, पृष्ठ-270)
हिन्दी ग़ज़ल यदि कहना ही है तो हिन्दी ग़ज़ल अब वह विधा है, जिसमें हुस्न और इश्क की चाशनी भर नहीं है, बल्कि ग़ज़ल वह हैं जिसमें हमारी तकलीफों, समस्याओं और जद्दोजेहद भरी ज़िन्दगी के समूचे फलसफे, वाकयात और हक़ीक़तें तो शामिल ही हैं समूची कायनात का सौन्दर्य-खुशबू रंगे रवानगी और तासीरें यकसां हो गई हैं।
हिन्दी में ग़ज़ल लिखने की परम्परा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से प्रारम्भ होती है। उनकी भाषा खड़ी बोली है जो उर्दू के समीप है। निराला, त्रिलोचन, शमशेर और दुष्यन्त कई ऐसे नाम हैं, जिन्होंने ग़ज़लों में अनेक रंग भरे हैं। दरअसल हिन्दी ग़ज़ल के विभिन्न आयाम और पड़ाव हैं। एक जमाने में निराला ने ग़ज़लों का भरपूर उपयोग किया है। अन्दाज़ेबयां, कहने में भले ही ये उर्दू की नजाकत न पेश कर पाये हों, लेकिन विषय, समाज का दुःख-दर्द अपनी खूबसूरती के साथ मुकम्मल रूपसे उनकी ग़ज़लों में मिलता है। निराला ने ग़ज़लें प्रयोग के लिये नहीं कहीं। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि कोई भी रचना अपने समय से बाहर नहीं होती। ग़ज़ल जैसी लोकप्रिय विधा में समय की पेचीदगियों को, भारतीय राजनीति के खोखलेपन और आम आदमी की तक़लीफ और जमाने की उठापटक को हिन्दी ग़ज़लों में दर्ज़ किया गया। निराला की ग़ज़लों के तीन नमूने देखें -
1. आज मन पावन हुआ है
जेठ में ज्यों सावन हुआ है। 
2. हंसी के तार होते हैं ये बहार के दिन
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन
3. निगह रूकी कि केशरों की बेशिंनी ने कहा
सुगंध-भार के होते हैं ये बहार के दिन।
विनय दुबे का मानना है कि “ग़ज़ल अपनी चमक-दमक और अन्दाज़ेबयां के साथ हिन्दी कविता के मंच पर आई और तमाम अभद्रताओं, अश्लीलताओं के बीच भी अपनी शालीन और साहित्यिक मुद्रा के साथ जगह बनाने की कोशिश की और जगह बनाई भी। इसी बीच पत्र-पत्रिकाओं में भी ग़ज़ल अच्छी खासी तादाद में छपने लगीं। कुछेक गम्भीर एवं ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों ने ग़ज़ल के प्रति शालीन एवं जिम्मेदाराना रूख अख़्तियार किया। इनमें शलभ श्री राम सिंह, शेरजंग गर्ग, अदम गोंडवी, रामकुमार -कृषक, विनोद तिवारी, जहीर कुरेशी, महेश अग्रवाल आदि कवियों का नाम लिया जा सकता है, लेकिन हिन्दी ग़ज़ल जैसी किसी चीज़़ के पचड़े में ये कवि नहीं पड़े। पूर्व में निराला, त्रिलोचन, शमशेर, दुष्यन्त आदि स्वनामधन्य कवियों ने भी ग़ज़लें लिखीं, किन्तु वे भी ग़ज़ल ही रहीं और न ही इन रचनाकारों ने उन्हें हिन्दी ग़ज़ल कहा। भला त्रिलोचन और शमशेर की उर्दू तथा हिन्दी के बारे में कोई ई§श्न उठा सकता है।“ (अग्निपथ ग़ज़ल विशेषांक)
हिन्दी ग़ज़ल कई पड़ावों से होकर गुजरी है और यह यात्रा अभी भी जारी है। रमेश रंजक की ग़ज़लों में बड़ा तीखापन और मारक स्वर मिलता है। जैसे - 
“थम जा आदमखोर जमाने, दुनिया भर के चोर जमाने
ये तेरी सरमायेदारी, हम देंगे झकझोर जमाने।“ 
ग़ज़लें कई बहरों की होती है। उनकी शक्ल सूरत में भी अक्सर फर्क होता है। जैसे - 
“इस कदर वक़्त की मारा मारी हुई
ज़िन्दगी कुछ नगद कुछ उधारी हुई।
दिन रात ओंटा हैं हमने पसीना
फिर भी हालत न बेहतर हमारी हुई।“
हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा एक लम्बे अरसे से हैं, लेकिन उसकी प्रतिष्ठा में दुष्यन्त कुमार ही है। दुष्यंत की ग़ज़लों के प्रकाशन के पश्चात पूरा हिन्दी संसार ग़ज़लों से आप्लावित हो गया। दुष्यन्त ने लिखा भी है कि “इधर बार-बार मुझसे यह सवाल पूछा गया है और यह कोई बुनियादी सवाल नहीं हैं कि मैं ग़ज़लें क्यों लिख रहा हँू? यह सवाल कुछ ऐसा भी है जैसे बहुत दिनों तक कोट पतलून वाले आदमी को एक दिन धोती-कुर्ते में देखकर आप उससे पूछें कि तुम धोती-कुर्ता क्यों पहनने लगे? मैं महसूस करता हूँ कि किसी भी कवि के लिये कविता में एक शैली से दूसरी शैली की ओर जाना कोई अनहोनी बात नहीं, बल्कि एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया हैं, किन्तु मेरे लिये बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। सिर्फ पोशाक या शैली बदलने के लिए मैंने ग़ज़लें नहीं कहीं। उसके कई कारण हैं, जिनमें सबसे मुख्य है कि “मैंने अपनी तक़लीफ को, उस शहीद तक़लीफ को, जिससे सीना फटने लगता है, ज्यादा से ज्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहँुचाने के लिये ग़ज़ल कहीं हैं।” वे आगे लिखते हैं कि - “ज़िन्दगी में कभी-कभी ऐसा दौर भी आता है जब तक़लीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है। उस दौर में फँसकर गमें जानां और गमें दौरां तकएक हो जाते हैं। ये ग़ज़लें दरअसल ऐसे ही एक दौर की देन हैं।” (साये में धूप, पृष्ठ-36)
मैंने प्रारम्भ में ही इस तथ्य का उल्लेख किया था कि आज जो ग़ज़ल लिखी जा रही है, उसमें मोहब्बत तो है ही। हमारे जमाने और ज़िन्दगी की तल्खी और कडुवाहटें कहीं ज़्यादा हैं। दुष्यन्त ने एक शेर में कहा है - 
“जिसको मैं ओढ़ता बिछाता हूँँ
वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूँँ।” 
हिन्दी ग़ज़लों की इस खास पहचान और दिशा के आलोक में ही हम ग़ज़लों की हक़ीक़त पहचानने में समर्थ हो सकते हैं। दुष्यन्त ने अपने आत्म वक्तव्य में इस बात को स्वीकारा है कि “ग़ज़ल मुझ पर नाजिल नहीं हुई। मैं पिछले पच्चीस वर्षों से इसे सुनता और पसन्द करता आया हूँँ और मैंने कभी चोरी-छिपे इसमें हाथ भी आजमाया है, लेकिन ग़ज़ल लिखने या कहने के पीछे एक जिज्ञासा आकर मुझे तंग करती रही है और वह यह कि भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि ग़ालिब ने अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिये ग़ज़ल का माध्यम ही क्यों चुना? और अगर ग़ज़ल के माध्यम से ग़ालिब अपनी निजी तक़लीफ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं तो मेरी दुहरी तक़लीफ (जो व्यक्तिगत भीहै और सार्वजनिक भी) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती? (साये में धूप, पृष्ठ-36)
दुष्यंत के कथनों से यह तो सिद्ध होता ही है कि ग़ज़ल अपनी पुरानी धुरी और भूमिका को छोड़कर जमाने के जलसे में शामिल हैं- कभी बहादुर शाह जफर ने अपनी पीड़ा को व्यक्त किया था - 
“लगता नहीं हैं दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी हैं आलमें ना पायेदार में” 
इससे जाहिर है कि ग़ज़लों में केवल प्रेम और लौकिक प्रेम का ही वर्णन हो सकता है, यह मान लेना भ्रांतिपूर्ण हैं। और भी विषयों की चर्चायें और मुकम्मल बातें इस काव्यरूप में हो सकती हैं। वस्तुतः कोई काव्यरूप किसी विशिष्ट भावाभिव्यंजना के लिये ही हो सकता है, यह मानना ही अवैज्ञानिकता का परिचायक है।”
दुष्यंत ने अपनी एक ग़ज़ल के शेर में कहा है - 
“मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।” 
बाहरी व्यवहार और आन्तरिक उथल-पुथल का सम्बन्ध शायर समझ सकता है, श्रोता या पाठक नहीं - ग़ज़ल के बारे में दुष्यंत का ख्याल है तीन शेर देखें-
सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होती नहीं, 
जिन हवाओं ने तुझको दुलराया
उनमें मेरी ग़ज़ल रही होगी, 
जब तड़पती सी ग़ज़ल कोई सुनाए
हमसफर ऊँघे हुये हैं, अनमने हैं।
दुष्यंत की ग़ज़लों का संग्रह ‘साये में धूप’ आया तो उसका पुरजोर स्वागत हुआ क्योंकि उसमें हमारे जीवन की त्रासदी, विडम्बनायें, हक़ीक़तें, विरोधाभास और जानलेवा स्थितियों को बखूबी रेखांकित किया गया है। चन्द नमूने इस तरह है - 
यहाँ तो सिर्फ गूँँगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा, 
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं, 
ज़िन्दगानी का कोई मकसद नहीं हैं
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं हैं, 
रोज़ जब रात को बाहर का गजर होता है
यातनाओं के अंधेरे में सफर होता है, 
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये, 
कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिये
कहाँ रोशनी मयस्सर नहीं शहर के लिये।
दुष्यंत ऐसे पहले ग़ज़लकार हैं, जो हमारे समय को, उसकी चुनौतियों को बहुत खुली और पैनी नज़र से देखते हैं। साथ ही बहुत तड़पते हुये अंदाज़ में उसे पेश करते हैं - 
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँँ
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं। 
राजनीति की आदर्शहीन, भष्ट और अवसरवादी प्रवृत्तियों के कारण कवि के मन में उत्पन्न होने वाला क्षोभ, विवशता, निराशा और हताशा जैसी भावनायें ही ग़ज़ल के एक-एक शेर में झलकती देखी जा सकती है। अपनी ग़ज़लों को इसी रूप को स्वीकारते हुये स्वयं दुष्यंत ने लिखा है -
“इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उंडेल
अब लोग टोंकते हैं ग़ज़ल है कि मर्सिया।”
दुष्यंत ने एक ही तरह की ग़ज़लें नहीं कहीं, उसके रंग अनेक हैं। उनकी कुछ ग़ज़लों में रूमानियत भी करीने से आई है। जैसे - 
“तुम किसी रेलगाड़ी से गुजरती
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँँ।” 
एक दूसरा रंग यह भी है - 
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिये।” 
दूसरा रंग यह भी है - 
“इस नदी की धार में ठण्डी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है”
एक चिनगारी कहीं से ढूँँढ़ लाओ दोस्तों
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।” 
दुष्यंत के पूर्व और उनके जमाने में जो ग़ज़लें लिखी जा रही थीं, उनमें भी हमारा समय मुस्तैदी से मौजूद मिलता है। नमूने के तौर पर उन ग़ज़लों की कुछ बानगी पेश है। इससे हिन्दी ग़ज़ल के विकास और तेवर का पता चलता है। त्रिलोचन का एक शेर है - 
“ठोकरें दर-ब-दर की थीं हम थें
कम नहीं हमने मुँह की खाई हैं।” 
शमशेर की ग़ज़ल के दो शेर पेश हैं - 
“जमाने भर का कोई इस कदर अपना न हो जाये
कि अपनी ज़िन्दगी खुद आपको बेगाना हो जाये। 
सहर होगी ये रात बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे देश का पैमाना हो जाये।” 
ऐसी हालत में क्या किया जाये
पूरा नक्शा बदल दिया जाये
देश का क्लेश मिटे इस खातिर
फिर नये तौर से जिया जाये।
हिन्दी ग़ज़ल में अदम गोंड़वी की हैसियत बहुत महत्वपूर्ण है। वे चीज़ों को आरपार देखने वालों में से हैं, जैसे - 
“वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे, आस्था, विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो यहाँ शम्बूक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें।” 
उनकी एक ग़ज़ल इस दौर में बहुत प्रसिद्ध हुई हैं - 
काजू की भुनी प्लेट, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।”
हिन्दी में ग़ज़लें खूब लिखी जा रही हैं और खूब प्रकाशित हो रही हैं और पढ़ी भी जा रही हैं। इधर ग़ज़ल गायकी की लोकप्रियता ने हिन्दी ग़ज़ल के विकास के प्रति हमें आश्वस्त किया है। ग़ज़ल रूमानी परम्परा से शुरू हुई, लेकिन इसकी विकास यात्रा ने हमें जमाने के दुःख-सुख के साथ शामिल किया है। जाहिर है कि ग़ज़ल अब हमारे और समय के साथ हैं।
हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा में नित नये स्वर उभर रहे हैं। नये मानक भी बन रहे हैं। इनके कई रंग हैं, कई मिजाज हैं और कई तासीरें हैं। इन ग़ज़लों ने हमारे जमाने के पूरे संदर्भों को समेट लिया है। नरेन्द्र कुमार ने अपनी एक ग़ज़ल में एक ऐसे सत्य को उजागर किया है, जिसका आमना-सामना हम निरंतर करते हैं - 
“अब कबूतर उड़ाकर क्या करोगे रहबरो
हो गयी टूटा हुआ इक प्यार अपनी ज़िन्दगी
हर तरफ कफर््यू का सामा मौत का पहरा लगा
बन गयी जलता हुआ बाज़ार अपनी ज़िन्दगी
एक ने मंदिर उछाला एक ने मस्जिद का नाम
खूब खायी पत्थरों की मार अपनी ज़िन्दगी।” (वर्तमान साहित्य, मार्च-1992 )
राजनीति की मक्कारियों, उसके फरेबों को ज्ञान प्रकाश विवेक कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं - 
“सूरज से हम बचे तो जुगनू से जल गये हैं
जिन पर किया भरोसा वो लोग छल गये हैं
सियासी शहर में तू आ गया है तो सुन ले
वजूद तेरा यहाँ इश्तहार-सा होगा।” (वर्तमान साहित्य, सितम्बर-1990)
प्रेम के व्यापकत्व को और चाहत को प्रियदर्शी ठाकुर कुछ इस तरह दर्ज करते हैं - 
“मैं तुम्हारी आरजू में सख्त घायल हो गया
इस कदर चाहा तुम्हें नीम पागल हो गया
रेत का अम्बार रातों-रात दलदल हो गया
कोई रोया इस तरह सहरा भी जल-थल हो गया।” (हंस, जुलाई 1994) 
शहाब अशरफ की नाजुकख्याली इस शेर में देखें - 
“क्या बदन है कि बहारों में पला हो जैसे
इस कदर नर्म कि ख्वाबों में ढला हो जैसे।”