Thursday, January 12, 2017

हिन्दी ग़ज़ल के नये पड़ाव

सेवाराम त्रिपाठी

यूँ तो ग़ज़ल का शब्दिक अर्थ नारियों के प्रेम की बातें करना है। ग़ज़ल फारसी-उर्दू में मुक्तक काव्य का एक भेद हैं जिसका प्रमुख विषय प्रेम होता है। ग़ज़ल की बनावट और बुनावट के बारे में लिखा गया है- “अक्सर ग़ज़ल के पहले शेर के दोनों मिसरे एक ही “काफिया“ और रदीफ में होते हैं। ऐसे शेर को ‘मतला’ कहते हैं। अंत में जिस शेर में शायर का उपनाम या तखल्लुस हो, वह ‘मकता’ कहलाता है। 
ग़ज़ल उर्दू काव्य का सबसे अधिक लोकप्रिय रूप है। इसी लोकप्रियता के कारण ग़ज़ल लिखने वालों ने ‘मुशायरों’ का आयोजन किया, जिसमें प्रत्येक कवि अपनी-अपनी ग़ज़लें सुनाता था। इस प्रकार एक परम्परा चल पड़ी, जिसका चलन आज भी बहुत है। दरअसल ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय विधा है। इसका पहला शेर स्थाई और शेष सभी शेर अन्तरे के रूप में जाने जाते हैं। जिन रागों में ठुमरी और टप्पे गाये जाते हैं, उन्हीं रागों का प्रयोग ग़ज़लों के गाये जाने में भी होता है। 
राग की शास्त्रीयता का ग़ज़लों की गायकी में जोर नहीं हैं। आजकल ग़ज़ल गायकी अपनी बुलंदियों पर हैं। इसी से इसकी लोकप्रियता का पता चलता है। ग़ज़लों की परम्परा में वहीं नुसरती, सिंराज, बली, शाह हातिम, शाह मुबारक, आवख, मुहम्मद शाकिर नाजी से लेकर मीर तकी मीर, इंशा, मुसहफी, नामिख, मोमिन, जौक, गालिब, आतिश, हाली, दाग, अमीर मीनाई, जलाल, फानी, हसरत, असर लखनवी, जिगर और फिराक गोरखपुरी तक अनेक रचनाकार हैं। मीर ने लिखा है - 
यपत्ता, पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने हैं
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने हैं।य 
ग़ज़ल की सुदीर्घ परम्परा में इसके क्रमिक विकास की समूची दास्तान है।
मेरी समझ में हिन्दी ग़ज़ल या फारसी या उर्दू ग़ज़ल कहना बेमानी है, क्योंकि समूची ग़ज़लों में हमारा समूचा जीवन बोलता है। ग़ज़ल, ग़ज़ल हैं, उसमें भेद नहीं किया जाना चाहिये और न अलग-अलग खाने बनाने की ज़रूरत है। बहरहाल हिन्दी में जो ग़ज़ल लिखी जा रही हैं, उन्हें उर्दू कवि स्वीकार नहीं कर पा रहे। उसमें मीटर और नाप जोख की दीवारें हैं। इसलिये देवनागरी में लिखी जा रही ग़ज़लों को हिन्दी में ग़ज़ल कहने या मानने की एक लचर परम्परा विकसित हो रही है, लेकिन यह मसला बाहरी है और एक तरह बेमानी भी है। किसी भी भाषा की लोकप्रिय विधा के सामने कभी कोई अवरोध आड़े नहीं आता। ग़ज़ल की हम जब भी बात करते हैं, उर्दू का नाम ज़रूर आता है। जाहिर है कि अब ग़ज़ल आशिक-माशूक के तकरार-इकरार और हुश्न-ओ-इश्क का मामला नहीं हैं। 
उर्दू में भी ये बंधन टूटे हैं, हिन्दी में तो कहना ही क्या? फिराक गोरखपुरी के शब्दों में - “दरअसल ग़ज़ल की व्यक्तिवादी चेतना का आधार इतना कमजोर नहीं था जितना ऊपर से देखने पर मालूम होता था। प्रेम की भावना उतनी ही स्वाभाविक है जितनी भूख और प्यास। कोई व्यक्ति देशप्रेमी हो या देशद्रोही, हिन्दू हो या मुसलमान, पुरातनपंथी हो या प्रगतिशील, हर एक को भूख, प्यास और नींद एक सी लगती है। उर्दू काव्य के पीछे सूफीवाद की वह शक्तिशाली परम्परा थी जिसे न धार्मिक कर्मकाण्ड का पशुबल दबा सका, न समय के प्रवाह ने जिसकी धार को कुन्द किया।“ (उर्दू भाषा और साहित्य, पृष्ठ-270)
हिन्दी ग़ज़ल यदि कहना ही है तो हिन्दी ग़ज़ल अब वह विधा है, जिसमें हुस्न और इश्क की चाशनी भर नहीं है, बल्कि ग़ज़ल वह हैं जिसमें हमारी तकलीफों, समस्याओं और जद्दोजेहद भरी ज़िन्दगी के समूचे फलसफे, वाकयात और हक़ीक़तें तो शामिल ही हैं समूची कायनात का सौन्दर्य-खुशबू रंगे रवानगी और तासीरें यकसां हो गई हैं।
हिन्दी में ग़ज़ल लिखने की परम्परा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से प्रारम्भ होती है। उनकी भाषा खड़ी बोली है जो उर्दू के समीप है। निराला, त्रिलोचन, शमशेर और दुष्यन्त कई ऐसे नाम हैं, जिन्होंने ग़ज़लों में अनेक रंग भरे हैं। दरअसल हिन्दी ग़ज़ल के विभिन्न आयाम और पड़ाव हैं। एक जमाने में निराला ने ग़ज़लों का भरपूर उपयोग किया है। अन्दाज़ेबयां, कहने में भले ही ये उर्दू की नजाकत न पेश कर पाये हों, लेकिन विषय, समाज का दुःख-दर्द अपनी खूबसूरती के साथ मुकम्मल रूपसे उनकी ग़ज़लों में मिलता है। निराला ने ग़ज़लें प्रयोग के लिये नहीं कहीं। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि कोई भी रचना अपने समय से बाहर नहीं होती। ग़ज़ल जैसी लोकप्रिय विधा में समय की पेचीदगियों को, भारतीय राजनीति के खोखलेपन और आम आदमी की तक़लीफ और जमाने की उठापटक को हिन्दी ग़ज़लों में दर्ज़ किया गया। निराला की ग़ज़लों के तीन नमूने देखें -
1. आज मन पावन हुआ है
जेठ में ज्यों सावन हुआ है। 
2. हंसी के तार होते हैं ये बहार के दिन
हृदय के हार के होते हैं ये बहार के दिन
3. निगह रूकी कि केशरों की बेशिंनी ने कहा
सुगंध-भार के होते हैं ये बहार के दिन।
विनय दुबे का मानना है कि “ग़ज़ल अपनी चमक-दमक और अन्दाज़ेबयां के साथ हिन्दी कविता के मंच पर आई और तमाम अभद्रताओं, अश्लीलताओं के बीच भी अपनी शालीन और साहित्यिक मुद्रा के साथ जगह बनाने की कोशिश की और जगह बनाई भी। इसी बीच पत्र-पत्रिकाओं में भी ग़ज़ल अच्छी खासी तादाद में छपने लगीं। कुछेक गम्भीर एवं ख्यातिप्राप्त साहित्यकारों ने ग़ज़ल के प्रति शालीन एवं जिम्मेदाराना रूख अख़्तियार किया। इनमें शलभ श्री राम सिंह, शेरजंग गर्ग, अदम गोंडवी, रामकुमार -कृषक, विनोद तिवारी, जहीर कुरेशी, महेश अग्रवाल आदि कवियों का नाम लिया जा सकता है, लेकिन हिन्दी ग़ज़ल जैसी किसी चीज़़ के पचड़े में ये कवि नहीं पड़े। पूर्व में निराला, त्रिलोचन, शमशेर, दुष्यन्त आदि स्वनामधन्य कवियों ने भी ग़ज़लें लिखीं, किन्तु वे भी ग़ज़ल ही रहीं और न ही इन रचनाकारों ने उन्हें हिन्दी ग़ज़ल कहा। भला त्रिलोचन और शमशेर की उर्दू तथा हिन्दी के बारे में कोई ई§श्न उठा सकता है।“ (अग्निपथ ग़ज़ल विशेषांक)
हिन्दी ग़ज़ल कई पड़ावों से होकर गुजरी है और यह यात्रा अभी भी जारी है। रमेश रंजक की ग़ज़लों में बड़ा तीखापन और मारक स्वर मिलता है। जैसे - 
“थम जा आदमखोर जमाने, दुनिया भर के चोर जमाने
ये तेरी सरमायेदारी, हम देंगे झकझोर जमाने।“ 
ग़ज़लें कई बहरों की होती है। उनकी शक्ल सूरत में भी अक्सर फर्क होता है। जैसे - 
“इस कदर वक़्त की मारा मारी हुई
ज़िन्दगी कुछ नगद कुछ उधारी हुई।
दिन रात ओंटा हैं हमने पसीना
फिर भी हालत न बेहतर हमारी हुई।“
हिन्दी में ग़ज़ल की परम्परा एक लम्बे अरसे से हैं, लेकिन उसकी प्रतिष्ठा में दुष्यन्त कुमार ही है। दुष्यंत की ग़ज़लों के प्रकाशन के पश्चात पूरा हिन्दी संसार ग़ज़लों से आप्लावित हो गया। दुष्यन्त ने लिखा भी है कि “इधर बार-बार मुझसे यह सवाल पूछा गया है और यह कोई बुनियादी सवाल नहीं हैं कि मैं ग़ज़लें क्यों लिख रहा हँू? यह सवाल कुछ ऐसा भी है जैसे बहुत दिनों तक कोट पतलून वाले आदमी को एक दिन धोती-कुर्ते में देखकर आप उससे पूछें कि तुम धोती-कुर्ता क्यों पहनने लगे? मैं महसूस करता हूँ कि किसी भी कवि के लिये कविता में एक शैली से दूसरी शैली की ओर जाना कोई अनहोनी बात नहीं, बल्कि एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया हैं, किन्तु मेरे लिये बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। सिर्फ पोशाक या शैली बदलने के लिए मैंने ग़ज़लें नहीं कहीं। उसके कई कारण हैं, जिनमें सबसे मुख्य है कि “मैंने अपनी तक़लीफ को, उस शहीद तक़लीफ को, जिससे सीना फटने लगता है, ज्यादा से ज्यादा सच्चाई और समग्रता के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहँुचाने के लिये ग़ज़ल कहीं हैं।” वे आगे लिखते हैं कि - “ज़िन्दगी में कभी-कभी ऐसा दौर भी आता है जब तक़लीफ गुनगुनाहट के रास्ते बाहर आना चाहती है। उस दौर में फँसकर गमें जानां और गमें दौरां तकएक हो जाते हैं। ये ग़ज़लें दरअसल ऐसे ही एक दौर की देन हैं।” (साये में धूप, पृष्ठ-36)
मैंने प्रारम्भ में ही इस तथ्य का उल्लेख किया था कि आज जो ग़ज़ल लिखी जा रही है, उसमें मोहब्बत तो है ही। हमारे जमाने और ज़िन्दगी की तल्खी और कडुवाहटें कहीं ज़्यादा हैं। दुष्यन्त ने एक शेर में कहा है - 
“जिसको मैं ओढ़ता बिछाता हूँँ
वह ग़ज़ल आपको सुनाता हूँँ।” 
हिन्दी ग़ज़लों की इस खास पहचान और दिशा के आलोक में ही हम ग़ज़लों की हक़ीक़त पहचानने में समर्थ हो सकते हैं। दुष्यन्त ने अपने आत्म वक्तव्य में इस बात को स्वीकारा है कि “ग़ज़ल मुझ पर नाजिल नहीं हुई। मैं पिछले पच्चीस वर्षों से इसे सुनता और पसन्द करता आया हूँँ और मैंने कभी चोरी-छिपे इसमें हाथ भी आजमाया है, लेकिन ग़ज़ल लिखने या कहने के पीछे एक जिज्ञासा आकर मुझे तंग करती रही है और वह यह कि भारतीय कवियों में सबसे प्रखर अनुभूति के कवि ग़ालिब ने अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिये ग़ज़ल का माध्यम ही क्यों चुना? और अगर ग़ज़ल के माध्यम से ग़ालिब अपनी निजी तक़लीफ को इतना सार्वजनिक बना सकते हैं तो मेरी दुहरी तक़लीफ (जो व्यक्तिगत भीहै और सार्वजनिक भी) इस माध्यम के सहारे एक अपेक्षाकृत व्यापक पाठक वर्ग तक क्यों नहीं पहुँच सकती? (साये में धूप, पृष्ठ-36)
दुष्यंत के कथनों से यह तो सिद्ध होता ही है कि ग़ज़ल अपनी पुरानी धुरी और भूमिका को छोड़कर जमाने के जलसे में शामिल हैं- कभी बहादुर शाह जफर ने अपनी पीड़ा को व्यक्त किया था - 
“लगता नहीं हैं दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी हैं आलमें ना पायेदार में” 
इससे जाहिर है कि ग़ज़लों में केवल प्रेम और लौकिक प्रेम का ही वर्णन हो सकता है, यह मान लेना भ्रांतिपूर्ण हैं। और भी विषयों की चर्चायें और मुकम्मल बातें इस काव्यरूप में हो सकती हैं। वस्तुतः कोई काव्यरूप किसी विशिष्ट भावाभिव्यंजना के लिये ही हो सकता है, यह मानना ही अवैज्ञानिकता का परिचायक है।”
दुष्यंत ने अपनी एक ग़ज़ल के शेर में कहा है - 
“मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँँ
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।” 
बाहरी व्यवहार और आन्तरिक उथल-पुथल का सम्बन्ध शायर समझ सकता है, श्रोता या पाठक नहीं - ग़ज़ल के बारे में दुष्यंत का ख्याल है तीन शेर देखें-
सिर्फ शायर देखता है कहकहों की असलियत
हर किसी के पास तो ऐसी नज़र होती नहीं, 
जिन हवाओं ने तुझको दुलराया
उनमें मेरी ग़ज़ल रही होगी, 
जब तड़पती सी ग़ज़ल कोई सुनाए
हमसफर ऊँघे हुये हैं, अनमने हैं।
दुष्यंत की ग़ज़लों का संग्रह ‘साये में धूप’ आया तो उसका पुरजोर स्वागत हुआ क्योंकि उसमें हमारे जीवन की त्रासदी, विडम्बनायें, हक़ीक़तें, विरोधाभास और जानलेवा स्थितियों को बखूबी रेखांकित किया गया है। चन्द नमूने इस तरह है - 
यहाँ तो सिर्फ गूँँगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा, 
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं, 
ज़िन्दगानी का कोई मकसद नहीं हैं
एक भी क़द आज आदमक़द नहीं हैं, 
रोज़ जब रात को बाहर का गजर होता है
यातनाओं के अंधेरे में सफर होता है, 
हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये, 
कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिये
कहाँ रोशनी मयस्सर नहीं शहर के लिये।
दुष्यंत ऐसे पहले ग़ज़लकार हैं, जो हमारे समय को, उसकी चुनौतियों को बहुत खुली और पैनी नज़र से देखते हैं। साथ ही बहुत तड़पते हुये अंदाज़ में उसे पेश करते हैं - 
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँँ
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं। 
राजनीति की आदर्शहीन, भष्ट और अवसरवादी प्रवृत्तियों के कारण कवि के मन में उत्पन्न होने वाला क्षोभ, विवशता, निराशा और हताशा जैसी भावनायें ही ग़ज़ल के एक-एक शेर में झलकती देखी जा सकती है। अपनी ग़ज़लों को इसी रूप को स्वीकारते हुये स्वयं दुष्यंत ने लिखा है -
“इस दिल की बात कर तो सभी दर्द मत उंडेल
अब लोग टोंकते हैं ग़ज़ल है कि मर्सिया।”
दुष्यंत ने एक ही तरह की ग़ज़लें नहीं कहीं, उसके रंग अनेक हैं। उनकी कुछ ग़ज़लों में रूमानियत भी करीने से आई है। जैसे - 
“तुम किसी रेलगाड़ी से गुजरती
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँँ।” 
एक दूसरा रंग यह भी है - 
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिये।” 
दूसरा रंग यह भी है - 
“इस नदी की धार में ठण्डी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है”
एक चिनगारी कहीं से ढूँँढ़ लाओ दोस्तों
इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।” 
दुष्यंत के पूर्व और उनके जमाने में जो ग़ज़लें लिखी जा रही थीं, उनमें भी हमारा समय मुस्तैदी से मौजूद मिलता है। नमूने के तौर पर उन ग़ज़लों की कुछ बानगी पेश है। इससे हिन्दी ग़ज़ल के विकास और तेवर का पता चलता है। त्रिलोचन का एक शेर है - 
“ठोकरें दर-ब-दर की थीं हम थें
कम नहीं हमने मुँह की खाई हैं।” 
शमशेर की ग़ज़ल के दो शेर पेश हैं - 
“जमाने भर का कोई इस कदर अपना न हो जाये
कि अपनी ज़िन्दगी खुद आपको बेगाना हो जाये। 
सहर होगी ये रात बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे देश का पैमाना हो जाये।” 
ऐसी हालत में क्या किया जाये
पूरा नक्शा बदल दिया जाये
देश का क्लेश मिटे इस खातिर
फिर नये तौर से जिया जाये।
हिन्दी ग़ज़ल में अदम गोंड़वी की हैसियत बहुत महत्वपूर्ण है। वे चीज़ों को आरपार देखने वालों में से हैं, जैसे - 
“वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे, आस्था, विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो यहाँ शम्बूक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें।” 
उनकी एक ग़ज़ल इस दौर में बहुत प्रसिद्ध हुई हैं - 
काजू की भुनी प्लेट, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।”
हिन्दी में ग़ज़लें खूब लिखी जा रही हैं और खूब प्रकाशित हो रही हैं और पढ़ी भी जा रही हैं। इधर ग़ज़ल गायकी की लोकप्रियता ने हिन्दी ग़ज़ल के विकास के प्रति हमें आश्वस्त किया है। ग़ज़ल रूमानी परम्परा से शुरू हुई, लेकिन इसकी विकास यात्रा ने हमें जमाने के दुःख-सुख के साथ शामिल किया है। जाहिर है कि ग़ज़ल अब हमारे और समय के साथ हैं।
हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा में नित नये स्वर उभर रहे हैं। नये मानक भी बन रहे हैं। इनके कई रंग हैं, कई मिजाज हैं और कई तासीरें हैं। इन ग़ज़लों ने हमारे जमाने के पूरे संदर्भों को समेट लिया है। नरेन्द्र कुमार ने अपनी एक ग़ज़ल में एक ऐसे सत्य को उजागर किया है, जिसका आमना-सामना हम निरंतर करते हैं - 
“अब कबूतर उड़ाकर क्या करोगे रहबरो
हो गयी टूटा हुआ इक प्यार अपनी ज़िन्दगी
हर तरफ कफर््यू का सामा मौत का पहरा लगा
बन गयी जलता हुआ बाज़ार अपनी ज़िन्दगी
एक ने मंदिर उछाला एक ने मस्जिद का नाम
खूब खायी पत्थरों की मार अपनी ज़िन्दगी।” (वर्तमान साहित्य, मार्च-1992 )
राजनीति की मक्कारियों, उसके फरेबों को ज्ञान प्रकाश विवेक कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं - 
“सूरज से हम बचे तो जुगनू से जल गये हैं
जिन पर किया भरोसा वो लोग छल गये हैं
सियासी शहर में तू आ गया है तो सुन ले
वजूद तेरा यहाँ इश्तहार-सा होगा।” (वर्तमान साहित्य, सितम्बर-1990)
प्रेम के व्यापकत्व को और चाहत को प्रियदर्शी ठाकुर कुछ इस तरह दर्ज करते हैं - 
“मैं तुम्हारी आरजू में सख्त घायल हो गया
इस कदर चाहा तुम्हें नीम पागल हो गया
रेत का अम्बार रातों-रात दलदल हो गया
कोई रोया इस तरह सहरा भी जल-थल हो गया।” (हंस, जुलाई 1994) 
शहाब अशरफ की नाजुकख्याली इस शेर में देखें - 
“क्या बदन है कि बहारों में पला हो जैसे
इस कदर नर्म कि ख्वाबों में ढला हो जैसे।”

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