Friday, January 13, 2017

 राष्ट्रीय काव्यधारा और बालकृष्ण शर्मा नवीन
डॉ. सेवाराम त्रिपाठी


भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने हमारी चेतना को बहुत गहराई तक झकझोरा, मथा और आन्दोलित किया था। अँग्रेज़ों की पराधीनता से हम आजिज आ गये थे। गुलामी की प्रवृत्ति हमारे मन के भीतर पाँव तोडक़र बैठ गई थी। 1857 के पहले स्वाधीनता आन्दोलन ने हमारे अन्दर की काहिली, डर, हताशा, निराशा और पराधीन चेतना को समूचे साहित्य में नये सिरे से व्याख्यायित, विश्लेषित करने का अद्भुत प्रयास किया था और उससे चिन्तन के नये-नये क्षितिज उद्घाटित होने शुरू हुये थे। इस कालखण्ड के रचनाकारों ने न केवल भावबोध के स्तर पर बढ़ रहे साम्राज्यवादी खतरे का प्रतिरोध अपनी रचनाशीलता के माध्यम से किया बल्कि सामाजिक सांस्कृतिक एवं राजनैतिक मोर्चों पर भी यह कार्यवाही प्रारम्भ हुई। भारतेन्दु युग की रचना शीलता में और पत्रकारिता में राष्ट्रीय नव जागरण और चेतना के तीव्र स्वर मुखर हुये थे। भारतेन्दु युग पर विचार करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा की मान्यता है- अगर हम भारतेन्दु युग के समूचे साहित्य पर नजर डालें तो देखेंगे कि उसका टिकाऊ हिस्सा वह नहीं है जो सम-सामायिकता से दूर है जो मध्यकालीन विषय-वस्तु और रूपों को ही साहित्य की पराकाष्ठा मानता है बल्कि उसका सबसे टिकाऊ ओर सजीव हिस्सा वह है जो पुराने रूपों में समसामयिकता की नई विषय-वस्तु भर रहा था और नई साम्राज्य विरोधी चेतना के अनुसार साहित्य के नये रूप भी गढ़ रहा था।
राष्ट्रीय काव्यधारा के प्राय: सभी कवियों का सम्बन्ध राष्ट्रीय आन्दोलन से रहा है। ये सभी कवि अपनी रचनाओं से जनता को उद्बोधित करते थे। भाषण मंचों से कविता सुनाकर जन-समूह को आन्दोलन के लिए सक्रिय होने की प्रेरणा देते थे। उनकी कवितायें एक तरह का राष्ट्रीय आह्वान भी हैं, सोये हुये लोगों को जागृत करने का व्यवस्थित काम भी करती रही हैं। हमें प्रतिरोध के रास्ते की ओर मोड़ती भी रही हैं। 1857 के बाद का समय हमारे सपनों के पंख लगाने का समय है। पुनर्जागरण का एक खास समय है।
आधुनिक काल के राष्ट्रीय नव जागरण की काव्य परम्परा में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, सियारामशरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, सोहन लाल द्विवेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर’, शिवमंगल सिंह सुमनजैसे कवि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वैसे हल्दी घाटी के कवि श्याम नारायण पाण्डेय और शहीदों पर प्रबन्ध काव्य लिखने वाले श्रीकृष्ण सरलको भला कौन भूल सकता है। यह समय जागृत होने, उठने और ललकारने का भी समय है।
राष्ट्रीय काव्य धारा के कवियों का प्रमुख लक्ष्य अंग्रेज़ों को भारत से बाहर भगाना और भारत को आ$जाद कराना था, साथ ही धार्मिक विद्वेष और पाखण्ड को समाप्त करना, साम्प्रदायिक भावना को कुचलना तथा गरीबी-अमीरी की जो लम्बी-चौड़ी खाई है, उसे पाटना भी रहा है। भारत का चतुर्दिक विकास भी राष्ट्रीय काव्यधारा के कवियों का सपना था। ये सभी कवि बाह्य यथार्थ के स्वरूप का चित्रांकन विश्वसनीयता के साथ करते हैं।
26 जनवरी 1930 को पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गई थी उसके सन्दर्भ में डॉ. पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा- ‘‘हम भारतीय प्रजाजन भी अन्य राष्ट्रों की भाँति अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं कि हम स्वतंत्र होकर रहें, अपने परिश्रम का फल हम स्वयं भोगें और हमें जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक सुविधायें प्राप्त हों जिससे हमें भी विकास का पूरा मौका मिले। हम यह भी जानते हैं कि यदि कोई सरकार अधिकार छीन लेती है और प्रजा को सताती है तो प्रजा को उस सरकार के बदल लेने या मिटा देने का भी अधिकार है। अंग्रेज़ी सरकार ने भारतीयों की स्वतंत्रता का ही अपहरण नहीं किया है बल्कि उसका आधार भी गरीबों के रक्त शोषण पर है और उसने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भारतवर्ष का नाश कर दिया है। अत: हमारा विश्वास है कि भारतवर्ष को अंग्रेज़ों से सम्बन्ध विच्छेद करके पूर्ण स्वराज्य या स्वाधीनता प्राप्त कर लेनी चाहिए।’’ (कांग्रेस का इतिहास पृ.-314-15)
नवीन जी मूलत: रोमानी स्वभाव के कवि रहे हैं। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में निरन्तर काम करते हुये उन पर मज़दूरों के आन्दोलनों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। उनके कृतित्त्व में प्रेम, राष्ट्रभक्ति और श्रमजीवी जनता से जुड़ा हुआ उद्दाम आवेग दृष्टिगोचर होता है। नवीन जी में विद्रोह भावना की प्रबलता है और अन्याय, असंगति और असमानता के प्रति तीब्र विरोध भी रहा है। भवानी प्रसाद मिश्र के शब्दों में- ‘‘नवीन जी केवल अंग्रेज़ी राज्य की कुत्सित नीतियों पर ही नहीं, भारत की मूल परम्पराओं  और उसकी वर्गगत आर्थिक व्यवस्था पर भी प्रहार करने से नहीं चूकते थे। विफलता के मूल में वे सामाजिक वैषम्य, पारस्परिक बैमनस्य एवं अराष्ट्रवादी भावनाओं को देखते हैं।’’
नवीन जी उस दौर के नेताओं के समझौतावादी चरित्र से बहुत नाराज़ थे। गाँधी जी की आलोचना इसी का फल है।
नवीन जी में राष्ट्रीय संस्कार कूट-कूटकर भरे थे। नवीन जी की खासियत यह है कि वे जेल के भीतर और बाहर साहित्य सर्जना करते रहे। स्वतंत्रता के पश्चात्ï उनकी रचनाएँ संकलन के रूप में प्रकाशित हुईं। उनका समूचा जीवन हमेशा एक योद्धा की तरह रहा है। वे जीवन भर बाह्यï और आन्तरिक प्रवृत्तियों से लड़ते-जूझते और टकराते रहे हैं तथा कभी किसी से पराजित नहीं हुये। उनमें पराजय बोध लगभग नहीं था। राजनीतिक और साहित्यिक जीवन में वे समझौतावादी नहीं बन सके। मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये जूझ जाना उनका स्वभाव था पर वे उच्छृंखल नहीं थे। नवीन जी की रचनाओं में उनके युग का समूचा द्वन्द्व, संघर्ष और विद्रोह भावना साकार दिखती है। उनका काव्य मनुष्यता की विजय का काव्य है। इन्सानियत की भावनाओं से उनकी कवितायें ओत-प्रोत हैं। नवीन जी के मन में राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय घटनाक्रमों का और निजी जीवन के संघर्षों का जबर्दस्त प्रभाव पड़ता रहा है। जिसमें 1917 की रूसी क्रान्ति भी शामिल है और गणेश शंकर विद्यार्थी का विराट् व्यक्तित्व भी उन्हें प्रेरणा देता रहा है।
नवीन जी की काव्य भाषा अधिकांशत: आम बोलचाल की भाषा से शक्ति ग्रहण करती है हालांकि उनमें छायावादी काव्यशिल्प का असर जरूर है। उनके भीतर विद्रोह की भावना की प्रधानता हमेशा रही है। जिसे उन्होंने अपने युग के अन्तर्विरोधों से जाना पहचाना था। नवीन जी ने विस्तार से लिखा है- कुंकम, रश्मिरेखा, अपलक, क्वासि, विनोबा स्तवन, उर्मिला, प्राणापर्ण, हम बिषपायी जन्म के और प्रलयंकर आदि रचनाएँ इस की साक्ष्य हैं। शिवदान सिंह चौहान के शब्दों- कुंकुममें संग्रहीत राष्ट्रीय आन्दोलन गाँधीवाद और प्रगतिवाद से प्रभावित गीतों में उनका व्यक्तिवाद दिनकर की तरह प्रगति के इतिहास की चेतना का विश्वास भरा गर्वस्फीत स्वर लेकर प्रकट हुआ।’’ (बालकृष्ण शर्मा नवीन’: व्यक्ति एवं काव्य, पृ.-50.)
नवीन जी की काव्य यात्रा में स्मृति, कल्पना और यथार्थबोध सभी का समाहार हुआ है। उनकी राष्ट्रीय और प्रेम मूलक दोनों प्रकार की रचनाएँ सशक्त हैं। हम बिषपायी जनम केमें यदि राष्ट्रीय सांस्कृतिक गौरव के प्रति कवि को आस्था है तो यौवन मदिरा या पावस पीड़ा में प्रेम की आकर्षक और ईमानदार अभिव्यक्ति हुई है। राष्ट्रीय काव्यधारा में नवीन एक भावुक कवि हैं। राष्ट्रीयता के सन्दर्भ में उनकी चिन्तनशीलता भी परिलक्षित होती है। नवीन जी की अनुभूति में कोई गुड्ड मड्ड पन नहीं है। सभी जगह उनकी सहजता विद्यमान है। वे भाषा और विषय दोनों में पवित्रता के समर्थक हैं। वे स्वभाव से स्वच्छन्द और अराजक थे, इसीलिए रूढिय़ों को तोडक़र उन्होंने अलग पथ बनाया।
नवीन जी की कविता में उलझाव प्राय: नहीं है। उसमें तीव्रतर यथार्थबोध है। वे यथार्थ को सीधे-सीधे देखते हैं, और बिना किसी लाग-लपेट के जैसा अनुभव करते हैं वैसा ही अपनी रचनाओं में प्रस्तुत करते हैं। दरअसल यथार्थ के दो रूप होते हैं- बाह्यï और आन्तरिक यथार्थ। नवीन जी आन्तरिक यथार्थ को या यथार्थ के भीतर मौजूद यथार्थ और उसकी आन्तरिक हलचलों को ठीक-ठीक स्थान नहीं दे पाते। उनकी कविता जो जैसा है उसे उसी तरह प्रस्तुत करने में अत्यन्त समर्थ है। उनके यहाँ बनावटीपन के लिये कोई स्थान नहीं है।
नवीन जी ने अपनी तमाम रचनाशीलता में गरीबों के प्रति अपनी उत्कृष्ट भावाभिव्यक्ति को मुखर किया है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं- जूठे पत्तेकविता में भिखारी का करुण चित्र प्रस्तुत हुआ है। कवि मनुष्य के भिक्षुक रूप पर क्षुब्ध है। अत: आक्रोश से भरा कवि भिक्षुक में आत्मविश्वास जगाकर संसार की चुनौतियों का सामना करने की प्रेरणा देता है।
‘‘लपक चाटते जूठे पत्ते जिस दिन देखा मैंने नर को
उस दिन सोचा क्यों न लगा दें, आग आज इस दुनिया भर को।
यह भी सोचा, क्यों न टेंटुआ घोंटा जाय स्वयं जगत्पति का
जिसने अपने ही स्वरूप को रूप दिया इस घृणित विकृति का।
...                      ...
ओ भिखमंगे अरे पराजित, ओ मजलूम अरे चिर-दोहित।
तू अखण्ड भण्डार शक्ति का जाग अरे निद्रा-सम्मोहित।
प्राणों को तड़पाने वाली, हुंकारों से जल-थल भर दे।
अनाचार के अम्बारों में अपना ज्वलित पलीता धर दे।’’
नवीन जी में विद्रोह भावना इतनी प्रखर थी, जिसके आवेश में अपने कलम कुठार से उन्होंने पूज्य महात्मा गाँधी को तो क्या परम सत्ता कहे जाने वाले ईश्वर को भी नहीं बख्शा। नवीन जी की एक अत्यन्त प्रसिद्ध कविता है- विप्लवगायन’, जिसमें उन्होंने विप्लव के स्वरूप को बड़ी ओजस्वी और धारदार भाषा में अभिव्यक्त किया है।
‘‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाये,
एक हिलोर इधर से आये, एक हिलोर उधर से आये,
प्राणों के लाले पड़ जाएँ, त्राहि-त्राहि रव नभ में छाये,
नाश और सत्यानाशों का धुँआधार जग में छा जायें,
बरसे आग, जलद जल जायें, भस्मसात्भूधर हो जायें,
पाप-पुण्य सदसद्ïभावों की धूलि उड़ उठे दायें बायें,
नभ का वक्षस्थल फट जाये, तारे टूक-टूक हो जायें,’’
जाहिर है कि सब कुछ जल जाने का नष्ट हो जाने का यह प्रबल प्रतिरोध या विद्रोह अन्ततोगत्वा एक तरह की दिशाहीनता में समाप्त होता है। यह एक तरह का आवेग है। और इसका कविता की दुनिया में जब-तब व्यवहार हुआ है। क्रान्तिकारिता में ऐसा आवेग कभी-कभी होता है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। 
नवीन जी फक्कड़ और अलमस्त स्वभाव के कवि थे। वे जीवन पर्यन्त फकीराना अन्दाज़ से रहे। उन्होंने कोई माया नहीं जोड़ी और न भवन बनवाये, जिसका चित्र हमें नवीन जी की प्रसिद्ध रचना हम अनिकेतनमें दिखाई पड़ता है।
हम अनिकेतन, हम अनिकेतन,
हम तो रमते राम हमारा क्या घर?
...              ...              ...

देखे महल, झोंपड़े देखे, देखे हास-विलास मजे के।
संग्रह के विग्रह सब देखे, जँचे नहीं कुछ अपने लेखे।

ठहरे अगर किसी के दर पर, कुछ शरमाकर, कुछ सकुचाकर।
यों दरबान कह उठा, ‘बाबा’, आगे जा देखो कोई घर।
हम दाता बनकर विचरे, पर हमें भिक्षु समझे जग के जन।
हम अनिकेतन, हम अनिकेतन।
राष्ट्रीय काव्यधारा का विश्लेषण करते हुए राजीव सक्सेना ने लिखा है- ‘‘इस काव्यधारा में उछा म संघर्ष का ओजपूर्ण आह्वन तो नहीं था किन्तु मजदूर किसान जनता के प्रति गहरी सहानुभूति, अतिनैतिकता की उच्छृंखलतापूर्वक ठुकराने और अपनी फकीरी में मस्तमौला बने रहने तथा जनसाधारण से तादात्म्य स्थापित किये रहने का संकल्प प्रमुख था। इस वृत्ति के दर्शन नवीन में पहले से ही हो रहे थे और इसमें संदेह नहीं कि फक्कड़पन के साथ और गरीब जनता से तादात्म्य के साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद पडऩे वाले नौजवानों को ये कवितायें बड़ी पसन्द थीं।’’(हिन्दी की प्रगतिशील कविताएँ पृ.-16.)
क्रान्ति का आह्वान करने वाले, मानवतावादी मूल्यों के समर्थक तथा राष्ट्रीय विचारधारा में डूबे हुए कवि बालकृष्ण शर्मा नवीनजी के पास यदि बहुत बड़ा लक्ष्य स्पष्ट होता और वे उन कारणों की खोज कर पाते जिनकी वजह से यह असमानता है, उत्पीडऩ है, मारा-मारी है तो सम्भवत: उनकी कविता हिन्दी कविता की लगभग सिरमौर कविता बनती। बहरहाल नवीन जी की कविताओं ने हमारी राष्ट्रीय  समस्याओं को नये रूप में रखा, नवयुवकों में उत्साह और जोश की भावना को केन्द्रीभूत किया। हिन्दी कविता, भारतीय राजनीति और राष्ट्रीय समस्याओं के सिलसिले में नवीन जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।


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