Friday, April 2, 2010

स्मृतियों के गाँव - हमें इस पर ध्यान देना चाहिए

आनेवाले समय में हमारी आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों में तेज़ी से बदलाव आयेगा. हम वैश्वीकरण, विदेशी पूंजी और काला-धन के दबाव का मुकाबला स्वदेशी पूंजी तथा अपने संसाधनों के माध्यम से कर सकेंगे. तय है हमें अपने पैरों पर खड़ा होना होगा... और हमारे लघु-कुटीर उद्योग धंधे, जिनको अभी तक हमने तिरष्कृत किया है और हाशिये पर रखा है, उन्हीं पर हमें ज्यादा ध्यान केन्द्रित करना होगा. विभिन्न रूपों में जो अर्थ की सत्ता है उसे आम आदमी तक बांटना पड़ेगा. तभी हम अपने देश का समग्र विकास कर सकते हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य की सामान सुविधाएं देकर दलितों, वंचितों तथा आदिवासियों की स्थितियों में सुधार लाना होगा.

हमारे पुराने सामाजिक ढाँचे निरंतर टूट रहे हैं और सामाजिक रूपांतरण की प्रक्रिया बहुत तेज़ हो गयी है. शादी-विवाह के प्रसंगों में एक तरह का खुलापन आया है. इसी तरह छुआछूत आदि सन्दर्भों में भी व्यापक परिवर्त्तन परिलक्षित किये जा रहे हैं. जहां तक राजनीतिक स्थितियों का सवाल है तो जनता का मौजूदा राजनीति से मोहभंग हुआ है. संकीर्ण हितों के स्थान पर हिन्दुस्तान की जनता बहुत व्यापक परिवर्त्तन की आकांक्षी है इसलिए वह बड़े दलों के स्थान पर छोटे और क्षेत्रीय दलों को स्वीकार करने में गुरेज़ नहीं करती. हम देख सकते हैं कि साम्प्रदायिक ताकतें हताश होकर छद्म रूप से वामपंथी पैंतरे खोज रही हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता पर काबिज़ होना है. २०१० में इस प्रक्रिया में कोई बदलाव आता मुझे नहीं दीखता.

साहित्य जगत में अब केवल कल्पना की दुनिया से काम नहीं चलेगा. हमें यथार्थ को ठीक से पहचानना होगा. नारेबाजी के स्थान पर आम आदमी की दुनिया का चित्रण अपनी रचनाओं में करना होगा. हमारे साहित्य से गाँवों को लगभग देशनिकाला दे दिया गया है, जो थोड़ा-बहुत आते भी हैं तो वे स्मृतियों के गाँव हैं. साल २०१० में हमें इस पर ध्यान देना चाहिए.