Tuesday, February 19, 2019


प्रो० नामवर सिंह को मेरे अनंत प्रणाम !!
हिन्‍दी के कद्दावर, कर्मठ एवं अपने मूल्‍यों के लिए सतत् संघर्ष करने वाले आलोचना के शिखर, अर्थगर्भी आलोचना के अद्भुत ज्ञाता, इस दौर के बहुज्ञात, बहुपठित आचार्य प्रो० नामवर सिंह का अवसान हमें बहुत सूना कर गया। वे साहित्‍य और जीवन की दूरी को पाटने वाले आलोचक रहे हैं। उनसे मेरी कई मुलाकातें हुई हैं। वे अपने जीते जी किवदंती बन गए थे। रचनाएं उनके सामने सहम सी जाती थी। अनेक विषयों के ज्ञाता नामवर जी जब बोलते थे तो शमा बंध जाता था, लगता था कि केवल उनको सुनते रहें और दुनिया को जानते रहें। हर लेखक अपनी रचना के बारे में उनसे कुछ राय की उम्‍मीद करता था यानी हर लेखक के लिए वे मनोवांछित आलोचक थे। उनका लिखा-कहा और पढ़ा हमें जीवंत रखेगा और दुनिया को समझने में हमारी मदद करेगा।
प्रो० नामवर सिंह की आलोचना कलाकार की उत्कट ईमानदारी का मुक्तिबोध के बाद सबसे बड़ा उदाहरण है। वे वाद-विवाद और संवाद के लिए विख़्यात रहे हैं। वे अर्थमीमांसा के विश्‍वसनीय आलोचक के रूप में पहचाने जाते हैं। उनकी आलोचना जनपक्षधरता और वर्गीय दृष्टि के मान-मूल्यों के लिए भी जानी जाती है। वे तब तक किसी को अच्छा या बुरा नहीं कहते थे- जब तक कि उसके लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाने को तैयार न हों। नामवर जी स्वाभिमान की जलती हुई निष्कंप मशाल की तरह याद किए जाएंगे। उनकी आलोचना हर प्रकार की संकीर्णता, रुग्णता, साम्प्रदायिकता और जनविरोधी शक्तियों के खि़लाफ़ लगातार संघर्ष करती रही है। उनके लक्ष्य स्पष्ट रहे हैं। उनकी आलोचना बुनियादी तौर पर हर प्रकार की सत्ताओं (राजनीति सत्ता, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और समाजसत्ता) के खि़लाफ़, अंधराष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद,  पूंजीवाद,  बाज़ारवाद के खि़लाफ़ मुहिम की तरह रही हैं। वे धर्मनिरपेक्ष और मानवीय मूल्यों के पक्षधर,  शोषितों,  पीड़ितों, वंचितों की आवाज़़ के रूप में पहचानी जाती है। नामवर जी ने जितना लिखा है उससे कहीं ज़्यादा कहा है। उनके लिखने और पढ़ने में समानता रही है। उसको कोई छोटा-बड़ा नहीं कह सकता। यह कहा सुनी भी एक मोर्चा की तरह रही है और लोक से जुड़ाव भी। उनकी आलोचना में विषय की विविधता, जानकारी का अक्षयस्रोत और निर्भ्रान्तता का आवश्यक गुण पाया जाता है, इसलिए उनकी आलोचना में विश्वसनीयता है। यही नहीं नामवर जी की आलोचना अपने समय,  समाज और परिवेश के उन सवालों से टकराती है जहां धुंध है,  धुआं है, कृत्रिमता और मूल्यविहीनता है। नामवर जी एक योद्धा की तरह समूचे पतनशील मूल्यों के विरुद्ध लामबंद रहे हैं। आलोचना उनके लिए इतिहास, संस्कृति, मनुष्य और युग का समग्र साक्षात्कार है। वे अपने तई ज़िन्दगी के महासमर में इन सबसे जूझते हुए देखे जाते रहे हैं। प्रगतिशील, मार्क्‍सवादी वैचारिकी के वे सक्षम व्याख्याकार के साथ उसके मूल्यों की सैद्धान्तिकी एवं व्यावहारिकता के पथ प्रदर्शक भी हैं। वे अपने को समीक्षक की बजाय आलोचक के रूप में देखना-सुनना ज्‍़यादा पसंद करते रहे हैं। उनका एक कथन मुझे बरबस याद आ रहा है- ‘’ साहित्‍यकार की गहराई इस बात में है कि वह सतह को तोड़ता है और इस तरह वह भ्रमों को हटाकर वास्‍तविकता का सही रूप उद्घाटित करता है। उद्घाटन-कार्य ही साहित्‍यकार का रचना-कार्य है- वास्‍‍तविकता का निर्माण वह उद्घाटन से ही करता है; भौतिक कारीगरों की तरह वह सचमुच ही कोई चीज़ नहीं बनाता।‘’
नामवर जी हमें लगातार आन्‍दोलित करते रहेंगे। उनकी वैचारिकता की धमक शताब्दियों तक गूंजती रहेगी। मेरी उनको विनम्र श्रद्धांजलि!!!!