Thursday, July 19, 2012

!! कितने पाकिस्तान: कुछ विचारणीय मुद्दे !! (!!Kitne Pakistan - Thinking again !!! -Sevaram Tripathi)

!!Kitne Pakistan - Thinking again !!! by Sevaram Tripathi on the Novel Kitni Pakistan by Kamaleshwar


मुक्तिबोध ने लिखा है कि ‘‘कलाकार को शब्द-साधना द्वारा नये-नये अर्थ स्वप्न मिलने लगते हैं, पुरानी फ़ैन्टेसी अब अधिक सम्पन्न, समृद्ध और सार्वजनीन हो जाती है। यह सार्वजनीनता, अभिव्यक्ति-प्रयत्न के दौरान शब्दों के अर्थ स्पंदनों द्वारा पैदा होती है। अर्थ स्पंदनों के पीछे सार्वजनिक अनुभवों की परम्परा होती है। इसलिये अर्थ परम्परायें न केवल मूल फैण्टेसी को काट देती हैं, तराशती हैं, रंग उड़ा देती हैं, वरन् उसके साथ ही, वे नयंे रंग चढ़ा देती हैं, नये भावों और प्रवाह से उसे सम्पन्न करती हैं, उसके अर्थ क्षेत्र का विस्तार कर देती है।’’ (तीसरा क्षण)
इस कथन को उद्धृत करते हुए मुझे लगता है कि ‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में एक ऐसी फैण्टेसी है जिसमें इतिहास, पुराकथायें और अपने वर्तमान के चेहरे की गहरी शिनाख़्त की गई है। राजनैतिक संस्कृति और तथाकथित धर्म की अवधारणाओं तथा संकीर्णताओं ने हमारे समय के सच को झूठ में तब्दील करने के अनंत खेल खेले हैं। इसे उपन्यास कहें या विचारणीय गद्य कहें या इसे कुछ और नाम दें - इसे बदलते समय की करवटों का बखान कहें या प्रेम की अनकही प्यास का आख्यान कहें। कमलेश्वर जी ने स्मृतियों के दंश के मार्फ़त सब कुछ कहना चाहा है। इसमें आपको उनकी पत्रकारिता का चेहरा और घटनाओं के ब्योरे भी दिखाई पड़ सकते हैं। इतिहास और वर्तमान का घेराव भी। युद्धों और महायुद्धों की फिलाॅसफी पर टिका हुआ महाभारत, आर्याना केडियस और यूनानी मिल्डियाडिस भी। यही नहीं रामकथा का शम्बूक प्रसंग भी। कोई भी बड़ी रचना किसी बड़ी फिलाॅसफी के बिना सम्भव नहीं होती। लेखक ने कारगिल प्रसंग, परमाणु परीक्षण, पोखरण प्रसंग, चंगाई में हुए परमाणु विस्फोट - इन सबको विधिवत चित्रित किया है। छोटी-छोटी कथाओं, उपकथाओं, छोटी और बड़ी घटनाओं को तरजीह देते हुए इसकी कथा को बहुत होशियारी से बुना है। कमलेश्वर जी बड़े रचनाकार हैं और रचना की दुनिया में उनके बड़े तीखे खुरदुरे और तल्ख अनुभव रहे हैं। वे शब्द की सत्ता को जानते पहचानते हैं और रचनाकारों की वृत्तियों को भी जांचते परखते रहे हैं। ये तमाम सवाल भी ‘कितने पाकिस्तान’ में एक तरह से पिरोये हुये हैं।
उन्होंने इस उपन्यास के पूर्व एक शेर उद्धृत किया है। जो कितने पाकिस्तान की वास्तविकता को बहुत शिद्दत से रेखांकित करता है -
‘‘इन बंद कमरों में मेरी साँस घुटी जाती है
खिड़कियाँ खोलता हूँ तो ज़हरीली हवा आती है।’’
यह उपन्यास साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता और रूढ़वादिता के खि़लाफ़ एक जिरहनामा भी है जिसमें बहस के जरिए इतिहास और वर्तमान के लम्बे घमासान को फ़ैण्टेसी और यथार्थ के माध्यम से जोड़ने का सार्थक प्रयत्न भी है। ऐसी तकनीक का इस्तेमाल लेखक ने किया है कि समूचा घटना-चक्र, समूचा इतिहास, पुराकथायें और राजनैतिक संस्कृतियों के ऊहापोह, धार्मिक विडम्बनायें, सामाजिक व्यवस्थायें उनके सामने आते हैं, मुजरिम के रूप में और अदीबे आलिया इसके जज के रूप में। लेखक निर्णायक है। जो भी फैसले हैं जो भी जिरह हैं - वह सब लेखक की आत्मा की आवाज़ है। उसके हृदय का बवन्डर है। वह ज़माने की भीषण त्रासदी की पड़ताल के रूप में पूरे उपन्यास में भिन्न-भिन्न रूपों में बिखरा हुआ है। लेखक के शब्दों में - ‘‘यह उपन्यास मन के भीतर लगातार चलने वाली एक जिरह का नतीजा है।’’ ऐसी जिरह जिसका कोई ओर-छोर नहीं। लगातार, अनवरत और रूहानी। एक अंतहीन-सी बहस का सिलसिला। जिसमें चिन्ताये है। भविष्य की बेहतरी के लिये कुछ प्रश्नांकन है और आगे के लिये कुछ योजनायें भी।
हमारा यह समय वैसे भी अब नायकों और महानायकों का नहीं है। एक विशेष अर्थ में यह खलनायकों का समय है क्योंकि नायक कब खलनायक के रूप में रूपान्तरित हो जाय या नया चोला धारण कर लें। कुछ भी निश्चित नहीं है। यह हमारे समय का दिलचस्प मंजर है। जिसका करिश्मा और हड़कम्प सभी ओर फैला है। कथा और जीवन में नायकों की विदाई का यह समय है। इस सन्दर्भ में मुझे अल्वेयर कामू का ‘द कैसल’ उपन्यास और मुक्तिबोध का ‘विपात्र’ लघु कथात्मक उपन्यास याद आ रहा है। कमलेश्वर जी ने समय को ही नायक, महानायक और खलनायक के रूप में पेश किया है। लेकिन मेरे मन में एक प्रश्न यह उठता है कि यदि लेखक या संस्कृतिकर्मी ही हर चीज़ का निर्णायक या नियामक बन जायेगा और फैसले करेगा तो कुछ ऐसी समस्यायें पैदा हो जायेंगी, जिनका कोई ओर-छोर नहीं होगा। ‘कितने पाकिस्तान’ में लेखक की वर्ग दृष्टि, लेखक की प्रतिबद्धता और लेखक की बेचैनी की कई पर्तें हैं। जिसका परीक्षण करने में कई ग़लत युक्तियां भी निकल सकती हैं। उन्हीं के शब्दों में - ‘‘सच को यदि पहले सोच कर मान्य बना लिया जाय तो यह सत्यभास तो दे सकता है पर आन्तरिक सहमति तक नहीं पहुंचता। शायद तब रचना अपने संभावित सत्य को खुद तलाशती है।’’ और मेरी निगाह में यह तलाश अभी भी जारी है और फिलहाल इसके अन्त की अभी सम्भावनायें भी बेहद कम है।’’ लेखक का प्रश्न करना बेचैनियों को सही संदर्भ में प्रस्तुत करना अच्छी बात है लेकिन उत्तरों को रेडीमेड तरीके से रखना। कदाचित अच्छा नहीं माना जायेगा।
यह उपन्यास अपने रचाव या बनक में अपने भीतर साम्प्रदायिक मानसिकता, धार्मिक हठवादिता और धर्मान्धता और उसके तमाम छलों को अनावृत्त करता चलता है। पुराने प्रसंगों के माध्यम से इस बहस को रोचक आत्मीय और छुअन भरे यथार्थ के माध्यम से साधा गया है। इस पूरे प्रसंग में लेखक की साफ सुथरी दृष्टि भी हम देख सकते हैं। किस्सागोई के अंदाज़ में घटनाओं की संजीदगी और जद्दोजहद के साथ इसे रूपायित किया गया है। इतिहास, धर्म, जाति और राष्ट्र के नाम पर रक्तरंजित संघर्ष और उससे उपजी त्रासदियों की भयावह दास्तानें और उनकी निष्पत्तियां भी मिल जायेंगी। जाहिर है कि लेखक ने अपने आपको ‘ग्लोरीफाई’ किया है और निर्णायक भी माना है। इस उपन्यास की अन्तर्वर्ती धारा बौद्धिक ज़्यादा है संवेदनात्मक कम। इसलिये इसमें सर्जनात्मक ऊर्जा की कमी दिखती है। इसकी आंतरिक अन्विति को वह बार-बार तोड़ देती है। समकालीन यथार्थ के प्रतिबिम्बन का नज़रिया एक अन्तहीन बहस है। और इस बहस में ऊबने की गुंजाइश लगातार बनी हुई है। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ‘कितने पाकिस्तान’ को रूपक की संज्ञा दी है। यह रूपक अपने भीतर बहुत कुछ समेट लेता है। समूची बहस से गुज़रकर जज एक निर्णय सुनाता है। यह निर्णय सभी को स्वीकार्य हो सकता है क्या ? ऐसे समय में जब इतिहास की मनमानी व्याख्यायें और अपने अनुकूल इतिहास को मोड़ने के गुमान और दम्भ मौज़ूद हों, इसमें कमलेश्वर जी ने अद्भुत चरित्रों को इतिहास के भीतर से उठाया है। दाराशिकोह की संवेदनशीलता और दृष्टि का व्यापकत्व भी आतताई और कूढ़मगज औरंगजेब को दुष्कृत्य करने से नहीं रोक सका। अंधा कबीर में लेखक अपनी परम्परा और परिणति को तलाशता है। इसमें अपने समय की अस्मिताओं का संघर्ष खासा उत्तेजक पहलू है। लेखक यह सिन्सिपर्टी दरअसल एक नया मानक है।
‘कितने पाकिस्तान’ की कथा एक रेडीमेड कथा है। इसकी कथा संरचना को कीमियागिरी से बुना गया है। इसमें यदि घटनाओं का घमासान है तो इसी के बरक्स लेखक के कृत्रिम और रेडीमेड फैसलों का भी घमासान है। लेखक जज की भूमिका को व्यापक और सशक्त बना पाया है या रच पाया है तो अपनी सुचिन्तित संरचना और पैनी सजग दृष्टि के माध्यम से। यह प्रश्न अभी भी मुझे अनुत्तरित लगता है। मेरे मन में एक प्रश्न रह रहकर कौंधता है कि क्या हम इतिहास और वर्तमान के मरणासन्न गवाह भर हैं या हमारी कोई महत्वपूर्ण भूमिका भी है। यह भूमिका है तो मात्र निर्णायक के रूप में। क्या लेखक को इस बात की इज़ाज़त दी जा सकती है कि वह तटस्थ या मूक दर्शक बना रहे। हम अपने समय पर सघन और सार्थक हस्तक्षेप न करें। क्या इतिहास और वर्तमान पर निर्णय करते हुए ‘महान’ बनने की आकांक्षा भर पालें। कमलेश्वर जी यह भी कहते हैं कि - ‘‘लगभग उसी अनकही बेचैनी और अपनी असमर्थता के बोध से मैं गुज़रता रहा। ..... आखि़र इस उपन्यास को कहीं तो रुकना था। रुक गया। पर मन की जिरह अभी भी जगी है। (यह उपन्यास-पहला संस्करण) लेखक के पास एक गद्गद्भाव या आश्वस्ति का भाव यह भी है कि - ‘‘पचास-पचपन बरस पहले जो अमूर्त-सी शपथ कभी उठाई थी कि रचना में ही मुक्ति है, उस मुक्ति का किंचित एहसास अब हुआ है। जि़न्दगी जीने का दायित्वों को सहने और रचना यह एक सच है कि जनवरी 2000 से अक्टूबर 2008 तक इस उपन्यास के बारहवें संस्करण प्रकाशित हुये - यह लेाकप्रियता का नया तिलिस्म है। जिन्दगी जीने दायित्वों को सहने और रचना की इस बीहड़ यात्रा के दौरान जो कभी सोचा था, सोचता रहा था कि ‘वाम चिरन्तन’ है। उसकी गहरी प्रतीति भी मुझे इसके साथ मिली है।’’ (तीसरा संस्करण)

!!Kitne Pakistan - Thinking again !!! by Sevaram Tripathi on the Novel Kitni Pakistan by Kamaleshwar