Sunday, May 21, 2017

सोशल मीडिया में फेसबुक और हमारी सरकार
                                                                                                                  सेवाराम त्रिपाठी
             पिछले दो दिनों से कुछ तकनीकी कारणों से मैं फेसबुक से अलग-थलग था। न तो मेरा इन्टरनेट काम कर रहा था, न फोन, न मोबाइल। ठीक तो अभी नहीं हुआ है। तकनीकी जानकार व्यवस्था सुधारने में लगे हैं। हम लोग तो अपनी आत्मगत ग़लतियों को स्वीकार कर लेते हैं। ऐसा न करेंगे तो पकड़े जायेंगे। बिना वजह की हाकेंगे तो कहीं न कहीं धर लिये जायेंगे क्योंकि अपना मामला शर्माे हया का है। दीन दुनिया का है। हमारे देश में कुछ ऐसे नामवर तत्व हैं या ऐसे तत्वज्ञानी हैं जिन्होंने शर्म, हया और लज्जा को चीनी की तरह घोलकर पी लिया है। ज़ाहिर है कि वे कहते हैं कि हम कभी ग़लती नहीं करते। शायद इसीलिये न तो उन्हें शर्म है, और न कहीं लज्जा। वे हयाप्रूफ हैं। वे किसी भी रूप में अपनी हेटी नहीं चाहते? बड़ी-बड़ी बातें हांकना तो उनका धन्धा है। बेशर्मी की वजह से आजकल महापुरुष बन जाने का प्रचलन है। लगता है इसी तरह महापुरुष बना जाता है। यह इसीलिये किसी भी क़ीमत पर लाख ग़लतियाँ करने पर बेशर्मी नहीं छोड़ना चाहते। फेसबुक का इस्तेमाल एक भयावह रोग की तरह है या एक विराट फैशन की तरह है। फेसबुक ऐसा है कि इससे आप जैसा व्यवहार करना चाहें कर सकते हैं या एक तरह से ‘ऐज यू लाइक इट’ यानी जैसा आप चाहें व्यवहार कर सकते हैं। सही-सही कोई कुछ नहीं जानता लेकिन है अवश्य ही ऐसा ही कुछ। इसका उपयोग करने वाले तो कुछ लगभग अजीब सी दीवानगी से भरे हुये हैं। उनके उत्साह का क्या कहना? अब तो फेसबुक बहुत सारी चीज़ें तय कर रहा है। यात्रा, उत्सव, अपराध, हांकने की कलायें, बड़ी-बड़ी बातें बघारने के जलसे, उत्सवों के नंगे नाच, बड़े-बड़े कार्यक्रम इसी अदा से सम्पन्न होते हैं। कुछ लोग इससे तरह-तरह की कटें निकालने की ‘फिराक’ में होते हैं। जाहिर है कि यह मनमाना सोशल मीडिया होते हुये भी आपसे भरपूर जिम्मेदारी की मांग करता है। दूसरी गम्भीरता को समझने की ज़रूरत है। इसका किसी भी तरह मनमाना प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये।
            परसों मेरे एक परिचित मिले कहने लगे पहले हमें कोई पूछता तक नहीं था जब से फेसबुक में आये हैं दनादन सारी चीज़ें पोस्ट कर रहे हैं। हम अपने मन के राजा हैं। लिखना, पढ़ना व्यवहार करना अपने हाथ में है। अब तो बड़े-बड़े तीस मार खाँ हमें जानने पहचानने लगे हैं। मुझे उनके चेहरे में प्रकाश फैलता हुआ नज़र आया। जैसे बड़े-बड़े व्यक्तित्वों और दैवीय लोगों के पीछे एक चक्र सा बन जाता है। वे बोले बड़े-बड़े हमारी लाइकिंग पर ज़िन्दा हैं। जो मन में आता है सो लिखते हैं। क्या किसी के गुलाम थोड़े हैं? वे बोले हम फेसबुक में चाहे जैसा व्यवहार करें। वे सब झेलते हैं। इसी से हमारी अपनी औकात बढ़ी है। दरअसल इस दौर में जो फेसबुक से नहीं जुड़ा। या वहाँ यदि उसका खाता नहीं खुल पाया। तो वह दुखी भी होता है निराश भी। इसीलिये लोग औने पौने  कम से कम खाता तो खुलवा ही लेते हैं। भले ही पोस्ट किसी की सहायता से एक-दो महीने बाद करें। इसे यह भी कहा जा सकता है कि वे चुपचाप अपने उसी खाते में फड़फड़ाते रहते हैं थोड़े से जल में पड़ी हुई मछली की तरह। और कभी-कभी गर्राते रहते हैं। बड़े गर्व से कहते हैं कि फेसबुक में अपना भी खाता है। यह तो उनकी फ़ितरत है। एक पक्ष यह भी है कि लोग चाहे मर जायें लेकिन सेल्फी लेना नहीं भूलते? उसे फेसबुक में पोस्ट करने से नहीं चूकते। नदी के बीच नाव डगमगाती है और वे सेल्फी खींच रहे होते हैं। किसी पुराने भवन के खण्डहरों में चढ़े हैं और सेल्फी ले रहे हैं। और कभी-कभार इसी प्रक्रिया में उनका रामनाम सत्य हो जाता है। अज़ीब-अजीब शौक हैं। कुछ लोग फेसबुक में हमेशा लाइव रहना चाहते हैं। लगता है यह उनके लिये ज़िन्दगी और मौत का मामला है। कुछ तो ऐसे-ऐसे फेसबुकिया होते हैं कि उनका मन फेसबुक में ही रमता है। पता नहीं किस-किस तरह की फोटो डालते हैं उत्सवों में, जंगलों में और न जाने कहाँ-कहाँ फोटो खींचते हैं और फेसबुक में भर देते हैं। अब उनसे कौन कहे कि इतनी सारी तस्वीरें देखने की किसकी औकात है। और भी तो लोग हैं मात्र आप ही देखंेगे तो टन्न गणेश हो जायेंगे। इसी तरह हमारी सरकारें हर उत्सव को, हर छोटे मोटे कार्यक्रमों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें, बड़े-बड़े विज्ञापन हर तरह के मीडिया में बड़ी शान के साथ और बड़ी अदा के साथ प्रकाशित करवा देते हैं। ताकि सनद रहे और वक़्त पर काम आये।
             देश में सूखा पड़ा है, देश में बाढ़ है, किसान आत्महत्यायें कर रहें हैं। हमारे सीमा में तैनात नवजवानों के मूड़ काटे जा रहे हैं। जरा सा पानी बरसता है पुल नदी नालों में लहालोट हो जाते हैं। यानी ध्वस्त हो जाते हैं। सड़कों के चीथड़े उड़ जाते हैं। जनता जनार्दन आँखें मूंदकर किसी तरह जीवित रहती है। सरकार कहती है अपराधियों को बक्शा नहीं जायेगा। लेकिन बार-बार यही होता है और धड़ल्ले से होता है। अचानक मुझे हरिशंकर परसाई याद आ गये उन्होंने लिखा है ‘भुखमरी और भ्रष्टाचार हमारी राष्ट्रीय एकता के सबसे बड़े ताक़तवर तत्व बन गये हैं।’  जीना यहाँ, मरना यहाँ इसके सिवा जाना कहाँ। मुझे लगता है कि अब फेसबुक और सेल्फी हमारे अमर होने का प्रमाण पत्र बनकर रहेगा? सरकार तो धमकियाँ देने में ज़िन्दा है। लगता है सिर्फ़ धमकियों से उनका काम चल जाता है। और ऐसा लगता है कि अब इसका शायद कोई विकल्प नहीं है। हमारा देश इसलिये भी महान है कि यहाँ ग़रीबी, भुखमरी, अत्याचार और भ्रष्टाचार का कोई विकल्प नहीं है। बड़ों-बड़ों के मुँह में दही जम जाता है। कोई भी सरकार अब भ्रष्टाचार और वादाख़िलाफ़ी के बिना जीवित नहीं रह सकती। अब तो उसमें कुछ नये तत्व पैदा हो गये हैं जैसे हांकना, शेखी बघारना और सीना फुलाना। अब सरकारें सीना फुलाने से तय होती हैं। जिसे अपनी सरकार चलाना है तो उसे हांकना ही पड़ेगा। बिना हांके कोई सरकार चल नहीं सकती। यदि आपने अपनी हांक बन्द की तो समझिये आपकी सरकार गई। चाहे अयोध्या मुद्दा हो या भ्रष्टाचार का मुद्दा हो या भुखमरी का मुद्दा हो सरकार के जीवन्त बने रहने का खसरा खतौनी है। सरकारें भी क्या करें कैसे जीवित रहें? लगता है उन्हें आपके सांस लेने तक में टैक्स लगाना पड़ेगा। पिछले दिनों उन्होंने रेलगाड़ियों के लोअर बर्थ (नीचे की सीटों पर) अतिरिक्त टैक्स लगाने की मंशा बना ली? प्रश्न है कि बीमार कहाँ जायेंगे? बड़े बूढ़े कहाँ जायेंगे? और अगला आयोजन यह होगा कि सीनियर सिटीजन (वरिष्ठ नागरिक) वाला कोटा भी खत्म कर दिया जायेगा। ऐसा इसलिये होगा कि इससे सरकारी आय में बढ़ोत्तरी हो और उनका काम धड़ल्ले से चल पड़े। सरकार के सामने कुछ बाधा  नहीं होनी चाहिये। वे जमाने लद गये जब गठबन्धनों से सरकारें चलती थीं। अब सरकार कोई धमकी नहीं सुनती। उसे तो एक छत्र साम्राज्य चाहिये। पूरे देश में उसका कब्जा होना चाहिये।
              फेसबुक इस दौर में शासन की तरह व्यवहार कर रहा है। अर्थात मीडिया और लोगों पर निरन्तर छाये रहना। जहाँ जाओ वहाँ फोटो खींचो और फेसबुक की वाल पर चिपका दो। लोगों को देख-देख कर अघा जाना चाहिये। और आपके करिश्मों को मान लेना चाहिये। सरकार का काम करिश्मों और मंसूबों से चलता है। उसी तरह फेसबुक भी करिश्मों से जलवा खींचता है। फेसबुक के बारे में आप चाहे जिस प्रकार का मत रखिये। उसके विधेय पर जाइये या निषेध पर, लेकिन उसे आप छोड़ नहीं सकते? उसके बगैर आप जी नहीं सकते? उसी तरह आप चाहे शासन के विधेय में हों या निषेध में। असहमतियाँ काँख़ती रहती हैं। उन्हें कोई नहीं पूछता। उससे अलग रहकर आप जीवनी शक्ति नहीं पा सकते। उसी तरह शासन जिस तरह शक्तिशाली है उसी तरह फेसबुक भी शक्तिशाली है। न शासन कम, न फेसबुक कम। दोनों एक दूसरे के समानान्तर हैं। क्योंकि आप उनके बगैर जीवित नहीं रह सकते? दोनांे में गर्दा मुर्दी चल रही है। वे एक दूसरे को पटक रहे हैं। वे हमारी भलाई बुराई करते रहते हैं और ठाठ के साथ जीते हैं। जैसे शासन अनेक चीज़ों के सन्दर्भ में कड़े से कड़े शब्दों में निन्दा करता है भले ही करता धरता कुछ न हो लेकिन अपने को हमेशा संदर्भवान बनाये रखता है। उसी तरह फेसबुक भी निन्दा करने में माहिर है और प्रशंसा करने में उस्ताद। वह ढपोर शंख की तरह बतियाता और शेखी बघारता है। लेकिन करे चाहे कुछ न। फेसबुक की माया शासन की तरह होती है। जैसे शासन मायावी होता है। तरह-तरह की फेंकू कार्यवाही करता है उसी तरह फेसबुक भी अपना हमेशा मायाजाल फैलाता और कई तरह की चीज़ें फेंकता रहता है। उसके द्वारा फेंकी हुई चीज़े कभी काम की होती हैं कभी बिना काम की। इन दोनों के सन्दर्भ में श्री कान्त वर्मा की कविता ‘हवन’ को पढ़िये। “चाहता तो बच सकता था/मगर कैसे बच सकता था/जो बचेगा कैसे रचेगा। पहले मैं झुलसा/फिर धधका/फिर छिटकने लगा/कराह सकता था/कैसे कराह सकता था/जो कराहेगा/कैसे निवाहेगा/न यह शहादत थी/न यह उत्सर्ग था/न यह आत्म पीड़न था/न यह सजा थी/तब क्या था यह/किसी के मत्थे मर सकता था/मगर कैसे मर सकता था/जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।”
            देश की स्थितियों के बरक्श न जाने कौन-कौन लोग याद आते हैं। खुशफहमियों का मायाजाल फैला है। जनता वहीं की वहीं है। जनतंत्र में जन अभी भी समस्याओं के अंधेरे में सांस ले रहा है। अंधेरा है सभी जगह। पढ़ाई का अंधेरा, सड़कों का अंधेरा, हमारे अरमानों का अंधेरा। तिल-तिल स्वाहा होती हमारी इच्छाओं का अंधेरा। साधारण आदमी जय-जयकारा लगाने के लिये, भूखे पेट सोने के लिये, वोट देने के लिये और प्रतिदिन उनका शान के साथ गुणगान करने के लिये और सरकार का बाजा बजाने के लिये है। इसी तरह फेसबुक चलेगा, इसी तरह सरकारें। हमें वादों से सरकारें भरमायेंगी और निरन्तर बमकती रहेंगी? धजी का सांप दिखाती रहेंगी? रघुवीर सहाय की यह कविता पढ़िये।
“राष्ट्रगीत में भला कौन वह/भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका/गुन हरचन्ना गाता है।
मखमल टमटम, बल्लम, तुरही/पगड़ी, तंत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर,, ढोल बजाकर/जय-जय कौन कराता है।
पूरब पश्चिम से आते हैं/नंगे ऊँचे नर कंकाल
सिंहासन पर बैठा उनके/तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन है वह जनगणमन/अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका/बाजा रोज़ बजाता है।
         बहुत कुछ घट रहा है देश में आम आदमी अधमरा है। केदारनाथ अग्रवाल की इन पंक्तियों पर ध्यान दीजिये सच तो यह है कि कोई भी तरीके आम आदमी को भरमा नहीं सकते। 
“जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है।
जिसने सोने को खोदा, मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा, नहीं मरेगा।”


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