Saturday, December 2, 2017

चमक अन्दर भी बाहर भी
  सेवाराम त्रिपाठी
वे लोग निश्चित रूप से महान होते हैं जो बदल रहे समाज और दुनिया के परिवर्तनों की आहट को अपनी लत्ता लपेटी में या स्वार्थपरता में खर्च करते हैं? ऐसा नहीं है कि बदलाहट होती ही नहीं? होती है तो हम उसे अपनी सुविधानुसार चेन्ज कर देते हैं? भारत अभी भी सत्तानशीनों के इशारे पर नाचता है, महानों की जय-जयकार करता है। उनकी पालकियों पर कन्धा देता है? यह सब कब तक चलेगा? इसका कोई निर्णय अभी तक नहीं हुआ। समाज बहुत तेज़ी से बदल रहा है, दुनिया बदल रही है लेकिन अभी भी हम संभावनाविहीन समाज रचे जा रहे हैं और पुराने जमाने के इरादों का डंका बजा रहे हैं? विकास होना चाहिये लेकिन उसके स्थान पर जब विनाश के उत्सव गीतों को पढ़ा जाता है तो कुछ न कुछ होकर रहता है। एक बीमार समाज, एक टूटन भरी मानसिकता को निरन्तर सिरजा जाता है, जहाँ विविधता अनेकता में एकता के मानकों को तोड़ा जाता है। तो हम कौन से चमकार से जगमगायेंगे माहौल को। हमारी नियति लड़ाई झगड़ा, लूट-खसोट और स्वार्थों का संसार नहीं है। भ्रष्टाचार की सनसनाती दुनिया भी नहीं है? 
गाँव-गाँव, कस्बों-कस्बों और शहरों में भ्रष्ट आचरण का, मारो-काटो-खाओ और हाथ मत आओ का एक भैरव राग प्रचारित किया गया है। गाँव कस्बे ही नहीं पूरा देश इन विकृतियों को झेल रहा है? आधुनिकता की विकृतियाँ, लम्पटता के नये-नये रूप हमारे मान-मूल्यों को लकवाग्रस्त कर रहे हैं? हम सोचते हैं कि क्या हमारा समाज नई वैचारिकता के आगोश में नहीं है? लेकिन उसकी विचार सरणियों से यात्रा करने में क़ाबिज मन सब्दारों को हमेशा असुविधा ही होती है? भ्रष्टाचार नीचे से ऊपर नहीं बल्कि ऊपर से नीचे की ओर आता है। बड़े-बड़े दिग्गजों से शुरू होती है भ्रष्टाचार और झूठ की लहलहाती दुनिया। तुलसी ने लिखा- ‘केसव कहि न जाय का कहिये/देखत तब रचना विचित्र अति समुझि मनहि मन रहिये।’ पढ़े लिखे दिमाग निरन्तर कांख रहे हैं और हमारा विकास लगभग पगला गया है। जाहिर है वह देश बहुत अच्छा होता है जहाँ मन से बातें की जाती हैं और लोग समझ जाते हैं। अब तो विकास का मामला दिल से भी सुलझाया जा रहा है। इससे बड़े-बड़े विज्ञापन निकलते हैं। और लोगों का कल्याण करते हैं। वास्तविकता से इनका कोई लेना-देना नहीं है? दूसरी जगहों में शायद इसीलिये बातें समझ में आती हैं क्योंकि वे दिल और मन की बजाय दिमाग से, यथार्थ से और लोककल्याणकारी योजनाओं के समनान्तर होते हैं? अब तो प्रश्न उठने लगा है कि दिमाग कोई आर्गन चीज़ है क्या? जिससे बातें की जायें। कभी-कभी आपको नहीं लगता कि मन से और दिल से बातें करके हम हमेशा ही सत्य बोलते हैं क्या? कभी-कभी यह भी लगता है कि शायद दिमाग से जो बातें बोलते हैं वो झूठ होती हैं। इस दौर में मन और दिल के पुन्नेठ ज़्यादा चमक रहे हैं इसलिये दिमाग की बजाय मन और दिल की बातें की जा रहीं हैं। और वे बातें लोगों के मनोविज्ञान की चटनी बना डालती हैं या उनके दिमागों में दही जमा सकती हैं।
युवाओं को नौकरी मिले या न मिले क्या फ़र्क़ पड़ता है? किसान या असली अन्नदाता कर्ज़ से आत्महत्यायें कर रहे हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है? बच्चे विभिन्न बीमारियों से मर रहे हैं तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। बच्चे तो वैसे भी मतदाता नहीं होते। उनके वोट की कोई हैसियत ही नहीं। लड़कियाँ कभी बलात्कार में, कभी दहेज में दहन हो रहीं हैं। बीमारियों को जाल फैला हुआ है क्या फर्क़ पड़ता है। अव्यवस्थ का राज चल रहा है उसे क्या मतलब? झांसा देना हमारे यहाँ राष्ट्रीय उत्सव से कम है क्या? कोई कहता है कि व्यापारियों को हर तरह से मुक्त किया जायेगा, उन्हें फंसने नहीं दिया जायेगा। शिक्षा और प्रशासन व्यवस्था बेहतर होगी। आर्थिक स्थितियों में तब्दीली होकर रहेगी कीमतें बढ़ती हैं तो अपनी बला से? राम राज्य आयेगा और घी दूध की नदियाँ बहेंगी? पवित्र नदियों की साफ़-सफ़ाई होगी? इन वायदों में दम है। मन और दिल से निकली हुई बातें हमेशा दमदार होती हैं। लोग मरें चाहें जियें? इससे काबिज लोगों पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता? प्रजातंत्र की परिभाषायें बदल रहीं हैं? अब  प्रजातंत्र जनता की बजाय शासन चलाने वालों पर निर्भर करेगा? जैसा सत्ता में काबिज सोंचेंगे कुछ उसी तरह के परिणाम होंगे क्येांकि मन चंगा तो कठौती में गंगा? जनता तो हमेशा बेचारी होती है? वह तो गाय है जितना दुहना हो दुह लो और बाद में बछड़ों को उसके थनों से चिपका दो। वे उन थनों को काफी समय तक चिचोरते रहेंगे? जनता के प्रतिनिध लगातार दुहे जा रहे हैं और जिन युवाओं में दुनिया बदलने की ताक़त है, जो पहाड़ी नदी की तरह होते हैं जिनमें समूची क्षमतायें होती हैं वे केवल थन चचोर रहे हैं? उनकी समूची ऊर्जा का इस्तेमाल किसी भी तरह के प्रलोभनों में चला जाता है और वे टुकुर-टुकुर ताक़ते रहते हैं कि अभी कुछ हो जायेगा लेकिन हुआ अभी तक नहीं। कहावत है आशा से आकाशा थमा है। युवाओं के बारे में कभी कोई प्रतिकूल टिप्पणी नहीं करता? उनसे अपने उपयोग के लिये हर तरह के काम कराये जाते हैं। सब उन्हें अच्छा और भला कहते हैं और इस तरह उन्हें हमेशा लूटा जाता है? शायद यही सत्ता में बैठे लोगों के लिये अमन का राग है। हमारी तरुणाई ठीक-ठिकाने से लालच में फंसी है। हमारा देश प्रलोभनों को झेल रहा है। बाबा लोगों का अपना धंध जारी है। कोई व्यापार कर रहा है, कोई बलात्कार कर रहा है, कोई वैभव का साम्राज्य खड़ा कर रहा है।
यहाँ ऐसा है कि जो सच-सच कहेगा, निश्छल रूप  से कहेगा, लोक कल्याण की बातें करेगा, जो हमेशा भला सोचेगा उसकी मौत निश्चित है। उसे या तो कहीं फंसा दिया जायेगा या मौत के घाट उतार दिया जायेगा। ऐसा बार-बार लोग कहते हुये घूम रहे हैं। इन्द्रधनुष दिखाये जा रहे हैं। खूबसूरत दिनों का व्यापार करिये क्या फ़र्क पड़ता है? हम सड़कें ठीक नहीं कर सकते। जहाँ गड्ढें हैं वहाँ हाई जम्प-लांग जम्प लगा रहे हैं। सड़कों के चीथड़े उड़ गये हैं। वे दिन ब दिन पुरातत्व की धरोहरें हो रहीं हैं क्या हम उन्हें ठीक कर पाये। समूचा खेल आंकड़ा जुटाने का है भले दिनों को सामने ला देने है। आपको झांसो के हिसाब किताब समझा दिये जायेंगे। हमारे यहाँ कुछ ताक़तें इस पर जीवित हैं कि देश का भला हो क्योंकि उन्होंने देश कल्याण करने का बेहद आसान रास्ता ले रखा है। देश उनकी नज़र में ठेके से है। जो कुछ पूर्व में हुआ था या किया गया था माना कि ग़लतियाँ वहाँ भी थीं लेकिन उसका मूड इसलिये नहीं है कि वह पुरानी जमाने की चीज़ें हैं वे समय के अनुरूप नहीं हैं जो समय के अनुरूप कार्य करेगा उससे जनता का भी भला होगा, प्रशासन का भी होगा और काबिज सत्ताओं का भी।

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