Tuesday, November 17, 2009

अराजकता के नए सीमान्त

भी-कभी मन बहुत उदास होता है.कोई सिस्टम नहीं। किसी को कोई डर नहीं। वही-वही दृश्य बार-बार दुहराए जा रहे हैं। चोर-लबार, लुटेरे, और धूर्त,हमें विकास के रास्ते पर ले आए हैं। चारो ओर उन्होंने झूठ का , भ्रष्टाचार का, आचरणहीनता एवं अराजकता का एक वितान बना डाला है। वे सच्चाई की राह पर चलने नहीं दे रहे हैं। जो भी वहां आता है, उसे झूठ और फ़रेब के दल-दल में पटक देने का काम वे मुस्तैदी से करते हैं। उसका लगभग अनुकूलन कर दिया जाता है। इस कार्यवाही में उनका पूरा एक तंत्र काम कर रहा है। वे हर किसी को अपनी अराजकता के दायरे में ले लेते हैं। उसे भ्रष्टाचार और षड़यंत्र में फंसा लेते हैं। वे ऊंचे दर्जे के पारखी हैं। किसे कैसे रखना है, वे बखूबी जानते हैं।


कुछ ऐसी हस्तियाँ प्रायः हर दौर में होती रही हैं। उनके मत में वे जो कर रहे हैं, वही सही है। वे बड़े हैं, बाकी सब बौने हैं। उनके गुमान देखें तो आप हैरत में पड़ जायेंगे। जो छाती ठोंक कर साहित्य से प्यार करने की घोषणा करते रहे, उन्होंने रावणोंऔर कंसों के जी भर के गुणगान गाये और अधिकतम लाभ उठाये। अख़बार मालिकों, संपादकों, मीडिया विशेषज्ञों और उनके सिपहसालारों की जूतियाँ सीढ़ी कीं और प्रसाद तथा पारितोषिक के रूप में अपनी इमेज बढ़ाने , यश कमाने की जुगत भिडाई और पैसे कमाए। ऐसे सूरमा लग-भगएक दलाल भाषा के ज़रिये आरती उतारते रहे, चरण चुम्बन करते रहे। यदि आप उनके रिकार्ड देखें तो आप चक्कर में पड़ जायेंगे और सर धुन-धुन पछतायेंगे। राजनीति की महामारी में पार्टियाँ बदलने छोड़ने वाले लोग रहे हैं। अब साहित्य में भी इस तरह के महारथी हैं, जो आत्मालोचन का नाटक रचते हुए अपनी महानताओं की छतरियां फैलाते रहे और ऐसी महान आत्माओं से दोस्ती निभाते रहे, अपने के और महान बनते रहे। वे आज जिन्हें गरिया रहे हैं उन्हें अपनी दोनों भुजाएं उठाकर अति महान घोषित करते रहे। वे अति-क्रांतिकारी, क्रांतिकारी और फ़िर पुनरुत्थान-वादियों , धर्म-ध्वजियों की पंगत में बैठते रहे, उनकी यश-गाथाएं गाते हुए आगे बढ़ते रहे। ये सुविधाओं का समाजशास्त्र बहुत अच्छी तरह से जानते-पहचानते हैं। न इन्हें लज्जा है न शर्म।
ये अराजक भाषा के कारीगर हैं, उपमाओं के सरताज, पैंतरे भांजने में माहिर चाहे जो रूप अख्तियार कर लेते हैं। इन्हें शर्म भी नहीं आती। अराजक लोगों का भी अपना पंथ होता है। उनके अहंकारों के पिरामिड हैं। ज्ञान का अहंकार, जात का अहंकार, शिक्षा और चतुरता का अहंकार। ये बड़ी-बड़ी बातें बघारते हैं, तरह-तरह की दुहाईयाँ देते हैं। इनके पास धमकी की भाषा है, इनके गुंडे हैं। इनका सूचना तंत्र है, इनकी हराम-जादगीयां हैं। ये पटाने के महावीर हैं। इनके लिए हर तरह के रास्ते खुले हैं। ये सुरक्षित क्रीडाओं के यार हैं। इन अराजकों की जेबों में विद्वानों, धर्म-ध्वजियों, विज्ञानियों, समाज-सेवकों के करिश्मे हैं। ये परम-क्रांतिकारी भी हैं और हर दर्जे के नराधम भी। इनके मुंह के खजाने हमेशा खुले रहते हैं। जिनमे तरह-तरह के भाषा ध्वनियाँ प्रवाहित होती रहती हैं। भाषण झरते हैं। अभिनंदनों की जुगाली होती है। ये अराजक किसी भी हद तक गिर सकते हैं और किसी नीच की कितनी अधिक प्रशंसा कर सकते हैं इसका कोई ठिकाना नहीं।

हमारे आस-पास अराजकों के नज़ारे मिलते रहते हैं। उनके कारनामे भी हम अक्सर देखते रहते हैं। अराजकों ने संस्थानों, प्रदेशों और देशों में तूफ़ान मचा रखा है। वे अपने आस-पास के वातावरण को ख़राब करते रहते हैं,

धमकियाँ हैं - सच ना कहना, बेटियां कट जायेंगी
जो उठाओगे कभी तो उंगलियाँ कट जायेंगी ................(अशोक अंजुम)

आतंक , अन्याय , असमानता और तरह-तरह के छल की इबारतें लिखी जा रही हैं। दुर्भाग्य से सच्चाई की राह पर चलने वालों का कोई संगठन नहीं है। सच की भाषा, लगभग चुप के भाषा है, जबकि झूठों, फरेबियों, दोगलों और अराजकों के संगठन काम कर रहे हैं, बाकायदा उन्होंने सफलता के रिकॉर्ड कायम किए हैं। उनके लिए सभी तरह के विकल्प खुले हैं, वे कोई भी सफलता चुरा लेते हैं, किसी भी सफलता पर डाका डालते हैं। उनकी कारगुजारियां चलती रहती हैं। जबकि सच्चाई की राह पर हर कोई दुखी है, संकट में है, सत्य की हत्या सरेआम हो रही है। इधर के वर्षों में इंसानों द्वारा इंसानों पर कहर बरपा हो रहा है। घर-गाँव-शहर और हमारे परिवारों में बुनियादी प्रश्नों को एक तरफ़ ठेलकर अन्याय, अत्याचार, शोषण और उत्पीडन के नए-नए तरीके इजाद किए जा रहे हैं। हर हादसा आदमी को एक नई मुठभेड़ से रूबरू करा रहा है। यथार्थ अलग हैं और यथार्थ के बिम्ब अलग हैं। सड़क से संसद तक फैली अराजकता ने समय के सच के स्थान पर अराजकता के नए रूपकों को रचा हैहाथी के दांत खाने के और हैं और दिखाने के और। धूमिल ने कहा-

"जानवर बनने के लिए कितने सब्र की ज़रूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूँ
क्योंकि आजकल मौसम का मिज़ाज यूँ है
की खून से उड़ने वाली पत्तियों का पीछा करना
लगभग बेमानी है।"

क्या हमने आज़ादी और जनतंत्र इसीलिए अपनाया था ? दुःख के ऊपर दुःख के अनवरत सिलसिले के लिए? फैज़ अहमद फैज़ ने जो कहा था उसपर विचार और पुनर्विचार की ज़रूरत है-

ये दाग दाग उजाला ये शब् गुज़ीदा सहर
वो इंतजार था जिसका ये वो सहर तो नहीं।

हमारे राजनैतिक सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों का जिस तेज़ी से ह्रास हुआ है उसमे अच्छे बुरे का फर्क नैतिक बोध और आत्मा की आवाज़ भी गिर गई है। एक तरह का भेडीया धसान यहाँ से वहां तक पसरा हुआ है। असमानता ,गरीबी भुखमरी, कुपोषण और क्षुद्रताएँ हर जगह व्याप्त हैं। हमारे लोकतान्त्रिक मूल्य तेज़ी से गिरते जा रहे हैं। हमें नीयत पर शक है। हमारा दुर्भाग्य यह है के एक तरह की तटस्थता ,उदासी निस्पृहता और जो हो रहा है उसे होने दिया जाय की तर्ज हमारी जीवन शैली में ढल रही है। एक तरह का अज्ञात डर हमारे ज़ेहन में है क्योंकी हम जितना अधिक शिक्षित हो रहे हैं उतना ही ज़्यादा अपने को डरा हुआ पा रहे हैं। चारो तरफ़ सन्नाटा है। अराजकता के नए नए दौर में हम जीने को विवश हैं।

मुझे साथी रमेश रंजक की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-

" बंधू देख भाल कर चलो
पैंतरे संभाल कर चलो ।"

इतिश्री ......................................................................
( ज़रूरी बात : कुछ मात्राओं और लिपि की त्रुटियाँ न चाहते हुए भी आपकी नज़र में होंगी । यह रोमन में टंकण और आटोमैटिक लिप्यान्तरण की वजह से ....आगे सुधर की गुंजाईश ज़रूर रहेगी.......धन्यवाद्)

1 comment:

  1. अपने वर्त्तमान समय का सटीक आकलन किया है. यह वह अराजकता नहीं है जिसकी अपनी एक राजकता भी होती है. आपसे आग्रह है कि जितना संभव हो सके लगातार लिखते रहें, हालात पर संक्षिप्त टिप्पणियों के तौर पर ही सही.

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