Saturday, July 30, 2011

!! हम भ्रष्टाचारी जनम के !!

हम जहां भी रहते हैं, अपनी कूबत भर भ्रष्टाचार करते हैं। भ्रष्टाचार करना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। हमारी प्रतिज्ञा है कि हम भ्रष्टाचार करते हैं और आगे भी करते रहेंगे। भ्रष्टाचार करने से हमें कोई रोक नहीं सकता। पहले हम छिपकर भ्रष्टाचार करते थे अब खुलकर और डंके की चोट पर कर रहे हैं। जिसको जो करना है कर ले। हम भ्रष्टाचार करना छोड़ेंगे नहीं।
हम पर किसी का कोई बंधन नहीं। हम स्वयं खाते हैं और जरा सा अपने चेले-चपाटों और हां हुजूरों को खिलाते हैं ताकि भ्रष्टाचार की गाड़ी आगे भी खिंचती रहे और ऐसा इसलिए करते हैं कि अकेले नहीं खा सकते। अकेले खाने के खतरे अनेक हैं। पोल तो पोल है किसी दिन खुल के रहेगी। इसलिए समय रहते हुए दूसरों की जीभ का भी सीमांकन हो जाए। सो भइया, भ्रष्टाचार के सिलसिले में हमने कीर्तिमान अर्जित किये हैं। हम कीर्तिमान अर्जित करने में इतने उतावले और तल्लीन हैं कि आगा-पीछा कुछ नहीं सोचते। कीर्तिमान हमारे लिए अर्जुन के लक्ष्य की तरह है, केवल चिडि़या की आंख अर्थात् भ्रष्टाचार का खुला खेल फर्रुखाबादी। भ्रष्टाचार की धुन में हमने सब कुछ तहस-नहस कर डाला। बुरी तरह फंस गये, लेकिन धौंस यही कि हम जैसा कोई नहीं। हम अनुपम और अद्वितीय हैं। यह अनुपमेयता और अद्वितीयपना चाहे जो कराये। मैं समझता हूं कि रिकार्ड टूटने की परम्परा का विकास इसी मानसिकता की उपज है। हर भ्रष्टाचारी अपने आपको साफ-सुथरा और सर्वोत्कृष्ट दिखाने का प्रयास करता है वह हरिश्चन्द्र का बाप बना फिरता है। भइया, पोलें तो कभी न कभी खुलती ही हैं। पोले बनी ही इसलिए हैं कि खुलें। जिस दिन पोलें खुलती हैं समूची हरिशचन्द्री बाहर कबड्डी खेलने निकल आती है। प्रसिद्धियों के दरवाजे खुल जाते हैं। नाक करीने से कट जाती है। फिर भी कटी हुई नाक के साथ हम अपने करतब दिखाने से नहीं चूकते। दूसरी नाक भी लगवाने को तैयार रहते हैं।
भ्रष्टाचारी अपनी स्वच्छ छवि बनाने का प्रयास और ढोंग करता है। अभिनय का लंगोट घुमाता है फिर भी कभी-कभी बड़ी-बड़ी ईमानदारियों के बाजे बज जाते हैं। भ्रष्टाचारी के अभिनय के अनेक सोपान हैं। सबको पटाकर चलना। तोड़-फोड़ करना। संशय और भ्रम का वातावरण निर्मित करना। लोगों की आपस में लड़ाई करवाना, उठा-पटक करना, एक को चढ़ाना दूसरे को उतारना और किसिम-किसिम के कुत्ते पालना, ताकि उसके काले-कारनामे लोगों की नज़र में न आये। सो वह तरह-तरह के नाटक करता है, भाव-भंगिमायें अपनाता है। भइया, हर भ्रष्टाचारी जमीन से एक फुट ऊपर उठकर आवभगत करता है और भीतर से गालियों का खजाना निकालता है। यह कला एकदम ‘स्पेशल’ है। सब के बस का यह रोग नहीं। यह कला सीखे बगैर भ्रष्टाचारी का कल्याण नहीं।
भ्रष्टाचारी कीर्तनियों की मण्डली जुटाता है। और अपने से ऊपर वालों के भजन गाता है, अपने से नीचे वालों से गवाता हैं। वह अपनी टीम से स्पेशल फोर्स से, हओ साहब, हाँ साहब, हाँ हुजूर की समवेत धुन सुनने को हमेशा इच्छुक रहता है। जो उसकी ताल पर नहीं नाचते, उसको मसका नहीं लगाते, वह उनको बेताल करने का हरसंभव प्रयास करता है। इस दौर में चरण छूना एक तरह के रोग की तरह लगा है। सब चरण छुवाई में मस्त हैं और इसी में मतवाले रहते हैं। मेरे प्रतिदिन दो हजार चरण छूने वाले लोग हैं। वह इसी में गनगनाता है। उसका प्रयास अद्भुत तो होता ही है, स्वयं सुर, ताल, लय और छंद विहीन होता है। सो भइया, कुछ महापुरुष कीर्तिमान के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि वे हर समय संगीत का छछूंदर छोड़ते हैं, सच्चाई और ईमानदारी का मुगदर भांजते नज़र आते हैं। कभी विनम्रता की खोल ओढ़े अपने चेहरे में गंदगी पोतते हैं। कागजी कर्मठता के पांसे फेंकते हैं। भ्रष्टाचार के लिए गुर्दा चाहिए। बिना गुर्देवाला भ्रष्टाचार नहीं कर सकता। नाटक नहीं रच सकता। जोड़-तोड़ और जुगाड़ की अंधी गली में नहीं फटक सकता। ईमानदारी के बलबूते का यह धंधा नहीं। इसके लिए फरेबी, जालसाज, झूठा और बेईमान होने की अनिवार्यता हैं
भ्रष्टाचार की कला का विकास बहुत प्राचीन समय से जारी है। इस जमाने में उसके माध्यम परिवर्तित हो गये हैं। काफी सूक्ष्मतायें और जटिलतायें हैं लेकिन तत्वदर्शी और खोजकर्ता नित नये माध्यमों को प्रस्तुत कर रहे हैं। जैसे-जैसे समय परिवर्तित होता जा रहा है भ्रष्टाचार का विकास और उसकी कलाओं के नये आयामों के प्रदर्शन हो रहे हैं। नये-नये किस्म के भ्रष्टाचार कला का विकास हो रहा है। यह कला निरंतर पल्लवित पुष्पित और फलित होगी।
भ्रष्टाचारी भाड़े के टट्टुओं की लंठई में भी निपुण होता है। वह गवइयों, बजइयों की रासलीला का भी इंतजाम कर सकता है। भ्रष्टाचार ऊपर उठने और मुग्ध प्रदर्शन का जुड़वा भाई है। आजकल कागज गोदना कर्मठता का पर्याय बन गया है। इसलिए महापुरुष कागज गोदने और गुदवाने के धंधे में थोक में लगे हैं। कागज गोदने की कार्यवाही जिस तन्मयता से की जाती है यदि उसका शतांश वास्तविकता में परिणत हो तो क्या कहना ? दफ्तर कागज गोदने के कारखने हैं। एक महीने में क्विंटलों कागज बड़े मजे से गुद जाते हैं। उन कागजों में तरह-तरह की चिडि़यां बैठती है। काम गया चूल्हे में। कागज गोदो, चिडि़या बैठाओ, चुस्त-दुरुस्त बने रहने का वजीफा पाओ। जो कागज नहीं गोद सकता मात्र काम करने में विश्वास रखता है। उसकी कोई वकत नहीं। उसी ऐसी-तैसी हो जाती है। हर कोई रिकार्ड देखता है। रिकार्ड कामों से नहीं कागजों से देखे जाने का रिवाज है और रिवाज जल्दी से बदलते नहीं। पूरा देश रीति-रिवाजों का मारा है। रीति-रिवाजों में फंसकर लोग मछली की तरह तड़फड़ा रहे हैं। सो भइया, निरन्तर कार्य करने वाले और मसकउअल एक ही छड़ी से हांके जाते हैं। यथार्थ स्थिति जानने की किसी को फुरसत नहीं। अंधेर नगरी चैपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा। तो यथार्थ यथास्थिति नहीं है। उसके कई तरह के फुदने हैं। इन फुँदनों ने देश को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया।
भ्रष्टाचार एक तरह का हांका है। इस हांके से पूरा देश हंक रहा है। हांका जा रहा है। भ्रष्टाचारी हँस की तरह उड़ रहे हैं। हांके पर हांके ठोंक रहे हैं। जो नहीं हंकना चाहता, उसका कचूमर निकाल दिया जाता है। उसे कहीं न कहीं फंसवा दिया जाता है। उल्टे दिमागों की कोई कमी नहीं, उनकी थोक पैदावार है इस मुल्क में। वे फंसाने के मौके तलाशते रहते हैं। जुगाड़ भिड़ाते रहते हैं। वे स्वयं फंस-फंस कर दूसरों को फंसाते हैं। फंसने-फंसाने की मुहिम जारी है। फंसना कई तरह का होता है। स्वयं फंसना, दूसरे से फंसवा लेना या दूसरे को बिना किसी वजह के फंसवा देना। यह एक तरह की राष्ट्रीय महामारी है। जिसका निरन्तर विकास हो रहा है।
भ्रष्टाचार ऐसा राजमार्ग है जिस पर चलने के लिए तिकड़म चाहिए। प्रदर्शन चाहिए, बदमाशी चाहिए। सत्य को काटने की कैंची चाहिए, ढोंग की गदहा-पचीसी चाहिए। भ्रष्टाचार के राजमार्ग पर सब कोई नहीं चल सकते। लोगों को मालूम है कि सत्य का रास्ता, सदाचार का रास्ता कांटो से भरा है और संभवतः इसलिए उसकी कीमत है। सत्य के लिए हरिश्चन्द्र को राजपाट, धन दौलत, ऐशो-आराम और समूचा वैभव छोड़ना पड़ा। स्त्री-पुत्र से वंचित होना पड़ा और सत्य की रक्षा के लिए श्मशान में पहरेदारी तक करनी पड़ी। सत्य और अहिंसा की रक्षा के लिए गांधीजी को लंगाटी पहननी पड़ी। जेल के सींखचों में बंद होना पड़ा। सत्य की विशेषता है कि वह आदमी को शमशान तक ले जाता है। अभी भी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने वाले, सामाजिक मूल्यों के लिए समर्पित होने वाले धक्के खाते मिल जाएंगे क्योंकि वे सही माध्यम नहीं पा सके। जिन्होंने मसकल्ले मारे हैं, वे चैन की बंशी बजा रहे हैं और यहां तक की एअर कण्डीशनर और दुनिया भर की तमाम सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं और आराम से पसरे-पसरे गर्रा रहे हैं। और भ्रष्टाचार की मुहिम छेड़े हुये हैं।
हे भ्रष्टाचार, तुम्हारी लीला अपरम्पार है। जिसने तुम्हारी शरण ली उसका उद्धार हो गया और जो तुमसे विमुख हुआ उसका बंटाढार हो गया। भ्रष्टाचार इस युग का सदाचार है। ‘जय-जय भ्रष्टाचार गोसाई’ कृपा करो महाराज ‘ऐसी विनती करने वाले निरन्तर बढ़ रहे हैं। दिन-दूनी रात चैगुनी उन्नति कर रहे हैं। उनका अनुरोध है कि महाराज ऐसा करो कि आलीशान बंगला तन जाए, बेहतरीन कार दरवाजे पर खड़ी हो जाए। फ्रिज, टी.वी., अल्मारियों का जुगाड़ बैठ जाए। सत्ता की ओर पहुंच का मार्ग खुल जाये। हे प्रभु पैसों की झड़ी लगा दो। प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य का खजाना खोल दो। खरीद-फरोख्त में अच्छा खासा कमीशन जमवा दो ताकि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का इंतजाम विदेशों में हो जाए। हे महाराज् ऐसे-ऐसे गुरुमंत्र सिखा दो ताकि हम जमकर सूतें लेकिन किसी की पकड़ में न आयें। किसी भी गली से चुपचाप सरक जाए। यह देश ऐसा है जहां गलियों, पगडण्डियों की कमी नहीं और न गलीबाजों की। ज्योतिषी ने भी ऐबों से बचाने का ठेका लिया है। भइया, भ्रष्टाचारी सब करते हैं अन्यथा वे तो मरेंगे ही उनके भक्त भी मारे जायेंगे। सबकी मिट्टी पलीत हो जाएगी।
भ्रष्टाचार आज के जमाने का सर्वाधिक ज़रूरी प्रसंग है और सबको ज्ञात है कि यह देश प्रसंगों का भरपूर आदी है। प्रसंगों के भरोसे समूचे कार्य सम्पन्न हो रहे हैं। अल्मारी, मेज, कुर्सी, तबला, हारमोनियम, टी.ए., डी.ए., प्रसंग, कमीशन प्रसंग, प्रेम प्रसंग, अभिनंदन प्रसंग से लेकर बलात्कार और मरा-मरी के प्रसंगों का तांता लगा है। आप जिस प्रसंग में सरकना चाहें, सुभीते से सरक लें। बड़ों के पाजामें में टांगे डालकर हाईजम्प, लांग जम्प लगा लें। किसी माई के लाल में इतनी हिम्मत नहीं कि वह प्रसंग को अप्रांसांगिक करार देने की जुर्रत करे और जो जुर्रत करते हैं उन्हें कान पकड़ कर अलग कर दिया जाता है। उनकी जीभ, उखाड़ ली जाती है ताकि सनद रहे और वक़्त पर काम आए। ऐसी-ऐसी टीमें और एजेन्सियां इन महत्वपूर्ण कामों में लगी हैं कि बड़े-बड़े अप्रासांगिक, कुप्रसंगों को बरी करवा के प्रासंगिक बनवा दिया जाता हैं। प्रसंग का कुप्रसंग बाल बांका नहीं कर सकते। हे भ्रष्टाचार महाराज! तुम्हारी बलिहारी है। तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। भ्रष्टाचार अब ऐसा राजमार्ग है जिस पर चलने के लिए लगभग राष्ट्रीय सहमति बन चुकी है। छात्र चैथी पांचवी कक्षा से ही नकल का भ्रष्टाचार का, कामचोरी का ताण्डव देखते हैं और धीरे-धीरे वे भ्रष्टाचार के आदी हो जाते हैं। उनका मन भ्रष्टाचार में रम जाता है। कबीर कहते थें ‘मेरो मन लागो यार फकीरी में’ अब सबका मन भ्रष्टाचार में परमानेन्ट रूप से लग चुका है। इसलिये न किसी को हया और शर्म की ज़रूरत है और न किसी तरह के धिक्कार की। हया, शर्म और धिक्कार गये गुज़रे जमाने की बातें हैं।

सेवाराम त्रिपाठी
Copyright:Sevaram Tripathi 2011

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